30 सितंबर 2012

विध्‍नविनाशक के भक्‍तों को बचाएं विध्‍न से...

दस दिनों तक उत्साह और उमंग का पर्याय रहे गणपति बप्पा की विदाई हो गई। विदाई भी पूरे जोशोखरोश के साथ हुई। जगह जगह जुलूस और झांकियां निकाली गईं और अगले बरस तू जल्दी आ के बुलंद नारों के बीच भक्तों ने विध्नहर्ता को विदाई दी। यह हर साल का क्रम है। हर साल अनंत चतुर्थी को बुद्धि के दाता भगवान गणेश की प्रतिमा की स्थापना घरों और सार्वजनिक स्थानों में विभिन्न मंडल और समितियों द्वारा किया जाता है और फिर दस दिनों तक गणपति बप्पा की धूम मचने के बाद अनंत चतुर्दशी को बाजे गाजे के साथ विसर्जन की प्रक्रिया पूरी की जाती है।
इस पूरे पर्व का एक महत्वपूर्ण संदेश यह रहता है कि समवेत सहयोग से गणपति की स्थापना की जाती है और फिर पूरे धार्मिक परंपरा के अनुरूप उनकी आराधना की जाती है लेकिन मौजूदा दौर में देखें तो इस पर्व में कुछ खामियां भी आ गई हैं। विध्नहर्ता लोगों के विध्नों को हरने का काम करते हैं लेकिन उनकी प्रतिमा स्थापित करने वाले उत्साही युवकों के कारण कई लोगों को विध्न का सामना करना पड़ता है। लोग पर्व की आड़ में जबरन चंदा उगाही करने से भी बाज नहीं आते और पर्व शुरू होने के बाद, गणपति प्रतिमा पंडाल  में स्थापित हो जाने के बाद तेज आवाजों वाले स्पीकर के जरिए फिल्मी गाने बजाकर, बेवजह का धूम धड़ाका कर लोगों को परेशान ही करते हैं। गणपति पंडालों में यदि भक्ति गीतों के बजाय फूहड़ फिल्मी गाने बजाएं जाएं तो यह बेहूदगी ही कहलाएगी और ऐसा ही अक्सर होता है। गणपति पंडालों को सड़क खोदकर लगाना भी एक तरह से लोगों को प्रभावित करना ही है। सड़कों को जाम कर दिया जाता है और बीच में पंडाल लगा दिए जाते हैं। मसला धार्मिक होता है, इसलिए इस पर ज्यादा कुछ कोई नहीं कहता लेकिन समितियों को इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि वे गणपति की आराधना करने के बहाने किसी को परेशान न करें।
कुछ जगहों पर विसर्जन झांकियों  की परंपरा है। इस मामले में राजनांदगांव सहित छत्तीसगढ़ के कई जिले प्रसिद्ध हैं। विसर्जन झांकियों में धार्मिक प्रसंगों पर आधारित चित्रण से न सिर्फ लोगों की धर्म को लेकर जानकारी का विस्तार होता है बल्कि आस्था बढ़ती है और मनोरंजन भी होता है लेकिन विसर्जन  झांकियों में जिस तरह से डीजे की कानफोड़ू आवाज और उसमें नशे की हालत में झूमते कथित भक्त नजर आते हैं, वह परंपरा के नाम पर खिलवाड़ की तरह ही है।
गणपति पर्व मनाए जाने का इतिहास देश की आजादी से जुड़ा हुआ है। जिस वक्त देश में अंग्रेजों का शासन था, उस वक्त लोगों में देशभक्ति जागृत करने के लिए महाराष्ट्र से इस पर्व की शुरूआत बाल गंगाधर तिलक ने की थी और फिर धीरे धीरे यह पर्व देश का पर्व बन गया, लेकिन अब यह पर्व कुछ इस तरह हो गया है कि देश और धर्म का भाव खत्म होकर सिर्फ उत्साह और उत्साह के नाम पर भी दिखावा नजर आने लगा है। इस प्रवृत्ति पर रोक लगनी चाहिए।
पर्व का समापन हो गया है।  इस मौके पर हम गणपति बप्पा की आराधना कर उनसे आग्रह करते हैं कि वे अगले बरस जल्दी आएंगे और अपने भक्तों को फिर से अपनी भक्ति के माहौल में सरोबोर करेंगे, ऐसे समय में हमें भी यह वादा खुद से करना होगा कि हम इस पर्व की प्रासंगिकता को और महत्व को बरकरार रखेंगे और ऐसा कोई काम नहीं करेंगे कि विध्न विनाशक  के भक्तों को किसी तरह का विध्न हो।

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