12 फ़रवरी 2013

अफजल ने जो बोया, वो उसे मिला

भारतीय संसद पर हमले के मुख्य मास्टरमाइंड अफजल गुरू को 12 साल बाद फांसी दी गई। एक ओर आठ साल पहले इस सजा पर अदालत की मुहर लगा दिए जाने के बाद भी इस काम के लिए इतना विलंब किए जाने को लेकर सरकार की आलोचना हो रही है तो दूसरी ओर अलग ही तरह का विधवा-विलाप किया जा रहा है। कहीं फांसी की सजा का विरोध हो रहा है तो कहीं अफजल को फांसी पर ही सवाल खड़ा किया जा रहा है। भारत से परे, पाकिस्तान में और कश्मीर के कुछ हिस्सों में अफजल के इस अंजाम का विरोध हो तो फिर भी समझा जा सकता  है, लेकिन आश्चर्य तो तब होता है जब देश के भीतर ही कई बुद्धिजीवी खुद को बहुत बड़ा मानवाधिकारवादी(?) साबित करने पर तुले हुए हैं। सवाल उठाया जा रहा है कि अफजल को प्राकृतिक न्याय नहीं मिल पाया, उसे बचाव का पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाया। इसी कड़ी में अफजल गुरू के वकील रहे एनडी पंचोली ने एक नया विवाद पैदा करने की कोशिश की है। उन्होंने इस दुर्दांत आतंकी के मामले की तुलना आजादी के ठीक बाद हुए महात्मा गांधी हत्याकांड के आरोपियों से करते हुए राय व्यक्त की है कि गांधी जी की हत्या का अपराध, संसद पर हुए हमले से बड़ा अपराध था और जब उस मामले में अपराध में सहयोग देने वालों को फांसी नहीं, उम्रकैद हुई थी तो अफजल को फांसी देना गलत हैै।
फांसी के बाद उठ रहे तमाम तरह के सवालों में से सिर्फ एक सवाल वाजिब लगता है, वह है फांसी में हुई देरी। अफजल पर भारत के कानून के मुताबिक बकायदा मुकदमा चला था और उसे अपने बचाव का पूरा मौका मिला था। इसके बाद उसे फांसी की सजा मिली थी। हर स्तर के अदालत से फांसी पर मुहर लगने के बाद उसे बचाव का एक मौका मिला था, राष्ट्रपति के पास। वहां से भी सजा माफी की अपील खारिज हो जाने के बाद से फांसी दी गई थी। अफजल की फांसी में देरी हुई, यह जल्द हो जाना चाहिए था, सिर्फ इस बात को करने के बजाय अब इस तरह का विवाद खड़ा किया जा रहा है, मानो एक अपराधी को सजा देकर अन्याय कर दिया गया हो। अफजल की फांसी देर से पर दुरूस्त  कदम है और हम इस विषय पर आ रही तमाम आपत्ति को खारिज करते हैं।
अफजल के वकील रहे पंचोली ने बेवजह का विवाद खड़ा करने की कोशिश की है। महात्मा गांधी की हत्या के मामले से संसद हमले की उनकी तुलना भी गलत है। आजादी के बाद महात्मा गांधी की हत्या का अपराध जघन्य जरूर था, लेकिन ये दोनों मामले अलग हैं। जहां तक हमारा मानना है कि महात्मा गांधी एक व्यक्ति थे जबकि संसद पूरे देश की अस्मिता का प्रतीक एक संस्था। ऐसे में यदि दोनों मामलों की तुलना भी की जाए तो संसद पर हमला बड़ा अपराध माना जाना चाहिए, लेकिन दोनों अपराधों की तुलना कर किसी अपराध को छोटा या बड़ा करने का प्रयास सिर्फ विवाद पैदा करने की मानसिकता को दर्शाता है, इसलिए ऐसे किसी विषय की जरूरत इस वक्त नहीं है। अफजल की फांसी का विरोध करने वालों को हमारा जवाब है कि उसने जो बोया, उसे वही मिला है।

5 टिप्‍पणियां:

  1. जो जैसा बोयेगा बैसा ही काटेगा,,,,आपने सही कहा ,,,

    RECENT POST... नवगीत,

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  2. यानों को देते उड़ा, करें नेस्तनाबूद |
    झटपट किन्तु वसूलता, अमरीका मय सूद |

    अमरीका मय सूद, दूध हम यहाँ पिलाते |
    अपनी संसद पाक, पाक लेकिन दहलाते |

    राजनीति का खेल, खेल खुल्ला शैतानों |
    महज वोट अभियान, धत धत अरे बयानों ||

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  3. सधी हुयी बात ...तर्क कुतर्क बहुत से किये जा सकते हैं पर देश के मान हमला करने वालों के लिए सजा तो बनती है

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  4. न सचिन क्रिकेट से ऊपर हैं न गाँधी देश से | संसद और गाँधी जी की तुलना का कोई तुक ही नहीं बनता | अफजल गुरु की माफ़ी की याचिका इतने सालों तक राष्ट्रपति कार्यालय में पड़ी रही |
    अब फांसी के बाद कश्मीर को लेकर गर्मी फैलाने की कोशिश है |सब अपना मतलब निकालने में लगे हैं |
    घर बगल में जल रहा है , आओ रोटी सेंकते हैं ,
    एक मुद्दा पल रहा है , आओ रोटी सेंकते हैं |

    सादर

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  5. ये सारे विवाद मीडिया खड़े करता है। अपने यहां बुलाकर, पेनल डिस्‍कशन कराकर। नहीं तो कौन जानता है कि ये क्‍या बोल रहे हैं। कुछ मामलों में तो मीडिया को भी अनुशासित होना ही पड़ेगा।

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