05 अक्तूबर 2010

दो कविताएं

_1_

सेकंड,
मिनट,
घंटा,
दिन,
महीना
और  साल....
न जाने
कितने कलेंडर
बदल गए
पर
मेरे आंगन का
बरगद का पेड
वैसा ही खडा है
अपनी शाखाओं
और टहनियों के साथ
इस बीच
वक्त बदला
इंसान बदले
इंसानों की फितरत बदली
लेकिन
नहीं बदला तो
वह बरगद का पेड
आज भी
लोगों को
दे रहा है
ढंडी छांव
सुकून भरी हवाएं
कभी कभी
मैं सोचता हूं
काश
इंसान भी न बदलते
लेकिन
फिर अचानक
हवा का एक झोंका आता है
कल्पना से परे
हकीकत से सामना होता है
आैर आईने में
खुद के अक्श को देखकर
मैं शर्मिंदा हो जाता हूं

_ 2 _

समय चलता रहा
अपनी ही गति से
और छूटते रहे
रिश्‍ते पीछे
क्‍योंकि
रिश्‍तों को तो
ढहराव की दरकार होती है
और समय
नहीं रूकता
किसी के इंतजार में.....!
मैं
कभी भागता
समय के साथ
कभी
पीछे छूट आए
रिश्‍तों की ओर मुडता
और इसी कश्‍मकश में
मेरे सारे रिश्‍ते
रह गए पीछे
समय भी
निकल गया
मुझसे दूर
और मैं
रह गया
दोनों के बीच
तन्‍हा.....
पूरी तरह तन्‍हा.......................!

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