यह लोकतंत्र का कौन सा चेहरा है? लोकतंत्र में बहुदलीय प्रणाली की व्यवस्था है। अलग-अलग दलों के लोग चुनाव मैदान में होते हैं और उनमें से जनता को एक को चुनना होता है। बहस होती है, कि सब के सब भ्र्रष्ट हैं। सब के सब बेकार हैं। जनता के पास विकल्प के नाम पर कुछ खास नहीं होता। जो सबसे कम बुरा हो, उसे चुनने का प्रयास जनता करती है। बहस इस बात पर भी हो रही है कि जनता को 'राईट टू रिकाल' और 'राईट टू रिजेक्ट' का अधिकार मिलना चाहिए, लेकिन यहां तो सब के सब धरे रह गए। राजनीति में संघर्ष की समाप्ति का यह उदाहरण कहां ले जाएगा?
बात हो रही है उत्तरप्रदेश की। उत्तरप्रदेश के कन्नौज की। यहां से खांटी समाजवादी मुलायम सिंह की बहू और मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (मुलायम पुत्र) की पत्नी डिंपल यादव सांसद बन गई हैं। 2009 में फिरोजाबाद में कांग्रेस के राजबब्बर के हाथों शिकस्त खाकर लोकसभा जाने से वंचित हो गई डिंपल ने आखिरकार संसद का रास्ता तय कर लिया और वह भी इस तरीके से जो उसके लिए, उसकी पार्टी के लिए तो दमदार है, पर लोकतंत्र के लिए...? लोकतंत्र के लिए तो यह चिंता का सबब है।
डिंपल के सामने सबसे पहले कांग्रेस ने अपने प्रत्याशी खड़ा नहीं करने का एलान कर दिया। कई दलों की बैसाखी पर चल रही केन्द्र सरकार के सामने इस समय मजबूरी है, अपनी सरकार को चुनाव के समय तक खींचने की और इसमें उसे मुलायम सिंह यादव का सहारा दिख रहा है। अपनी इसी मजबूरी में उसने 2009 में भी कन्नौज से उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था और इस बार भी उसने कन्नौज को छोड़ दिया।
बसपा का तर्क अजीब है। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी से शिकस्त खाकर सत्ता से बाहर हो चुकी मायावती की पार्टी के पास यदि नैतिक साहस होता तो वह कन्नौज में अखिलेश यादव की हारी हुई पत्नी को मैदान में देखकर उसके खिलाफ सीना तानकर खड़ी होती लेकिन उसने घुटने टेक दिए। तर्क दिया कि जिस तरह रायबरेली और अमेठी में गांधी-नेहरू परिवार काबिज है और उस क्षेत्र में विकास नहीं दिख रहा है, उसी तरह यह क्षेत्र भी विकासविहीन होगा, इसे साबित करने के लिए उसने उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। सवाल यह उठता है कि पांच साल तक प्रदेश की सत्ता में वह बैठी रही, उसने इस क्षेत्र के विकास के लिए क्या किया? कन्नौज में मुख्यमंत्री की पत्नी चुनाव लड़ रही थी, सत्ताधारी पार्टी के सामने खड़े होने में पसीने छूटने लगे बसपा के और उसने डर कर मैदान छोड़ दिया।
भाजपा की स्थिति तो हास्यास्पद हो गई। पहले तो उसने अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं करने का फैसला किया और जब पार्टी के भीतर इस फैसले का विरोध हुआ तो आनन फानन में उम्मीदवार तय किया गया। जिसका नाम तय किया गया, उसके पास इतना वक्त ही नहीं बचा था कि वह नामांकन दाखिल कर पाता, लिहाजा भाजपा भी मैदान में नहीं रही।
डिंपल के अलावा दो और उम्मीदवार मैदान में थे जिन्होंने अपना नाम वापस ले लिया। डिंपल निर्विरोध चुन ली गई। समाजवादी पार्टी के लिए यह उपलब्धि का विषय हो सकता है कि उसकी पार्टी के उम्मीदवार, उनकी बहू निर्विरोध चुन ली गई पर यह जनता के लिए तो धोखे की तरह है।
हमारा मानना है कि यह धोखा कांग्रेस ने दिया है, बसपा ने दिया है, भाजपा ने दिया है। चुनाव में उम्मीदवार चुनना जनता का हक है और यह लोकतंत्र का हिस्सा है। लोकतंत्र में जनता से उसका हक छीनने का अधिकार किसी का नहीं है, लेकिन ऐसा किया गया है। पार्टियों को इसका जवाब देना होगा।
बिल्कुल सही कहा है आपने ... सार्थकता लिये उत्कृष्ट लेखन ...आभार ।
जवाब देंहटाएंअभी भी "राईट तो रिजेक्ट" का अधिकार है... और इस आधार पर भी यह चुनाव होना चाहिए था... क्योंकि यह भी सम्भावना है कि लोग स्वयं इनको रिजेक्ट कर दें.... इस तरह का चुनाव वोटर्स के अधिकारों का हनन है...
जवाब देंहटाएंलोकतंत्र में जनता से उसका हक छीनने का अधिकार किसी का नहीं है, लेकिन ऐसा किया गया है। पार्टियों को इसका जवाब देना होगा।,,
जवाब देंहटाएंMY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: ब्याह रचाने के लिये,,,,,
दरअसल यह और कुछ नहीं बल्कि 2014 के आम चुनावों का रिहर्सल है।
जवाब देंहटाएंयह भयंकर त्रासद मज़ाक है जो एक ही बात साबित करती है....
जवाब देंहटाएंजम्मों मिल के जाबो ग
लोकतन्त्र ला खाबो ग
सजग आलेख के लिए सादर बधाई।
लोकतंत्र के लिए एक बड़ी दुर्घटना है यह
जवाब देंहटाएंKaunsi party apni zimmedaree samajhtee hai? Koyi jawabdehi nahee hogee.
जवाब देंहटाएंक्या कहें अतुल जी ... यहाँ जो न हो वो कम ही समझिए !
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - आज का दिन , 'बिस्मिल' और हम - ब्लॉग बुलेटिन
पार्टी में कोई सवाल सुने तब न जवाब दें!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंये भारत है..ऊपर से उ.प्र...............
बस तमाशा देखते जाइए.
अनु
लोकतान्त्रिक व्यवस्था का दुखद स्वरुप ....
जवाब देंहटाएंनेताओ की ये कैसी नेताई.....
जवाब देंहटाएंकहाँ है इसमे देश की भलाई.....
अबतक जनता के पैसो पर मजे कर रहे थे...
अब हक़ पर भी हाथ जमाये है....
बस इस ही तरह की लोकतांत्रिक व्यवस्था ही देश की बरबादी का सबसे बड़ा कारण...
जवाब देंहटाएंइस बात से पता चलता है की सब राजनितिक पार्टियां एक ही हैं ... कुछ फरक नहीं ... किसी का खून भी कर सकते हैं ये एक दूजे की फायदे के लिए ...
जवाब देंहटाएंहक छीनने का अधिकार किसी का नहीं है पर आज तक हक़ छिना ही जाता रहा है !
जवाब देंहटाएंलोकतंत्र में सबको मजाक का अधिकार है जी। :)
जवाब देंहटाएंloktantr mazaak ban kar rah gayaa hai,sahee lkhaa hai aapne.Khaas logon ka tantr ban gayaa kyon jantaa nahe samajh paatee
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