06 अक्तूबर 2010

पद्मश्री लौटाना चाहता है चरणदास

 
श्री गोविंदराम निर्मलकर
 जिन्होंने हबीब तनवीर का चरणदास चोरदेखा हो या आगरा बाज़ार’, उन्हें गोविंद राम निर्मलकर ज़रुर याद होंगे. चरणदास चोरका चोर हो या आगरा बाज़ारका ककड़ी बेचने वाला हो, ‘लाला शोहरत बेगका शोहरत बेग हो या देख रहे हैं नैनका दीवान, गोविंद राम निर्मलकर से आप बात करें तो लगता है, जैसे कल की ही बात हो. लेकिन गरीबी और लकवा की मार झेलते हुए पिछले दो सालों से बिस्तर में पड़े हुये गोविंदराम निर्मलकर बात करते-करते अनमने से हो जाते हैं. कुछ यों जैसे सब कुछ व्यर्थ हो गया. वे गहरी पीड़ा और दुख के साथ कहते हैं-मैं चाहता था कि नई पीढ़ी को अपनी नाचा कला सौंप कर चैन से मर सकूं लेकिन ऐसा नहीं हो सका.

गरीबी और बीमारी ने उन्हें तोड़ दिया. पद्मश्री समेत सारे सम्मान बेमानी साबित हुये और आज हालत ये है कि अपनी दवाइयां खरीदने और गृहस्थी की गाड़ी चलाने के चक्कर में वे लाख रुपये के कर्जे में डूबे हुए हैं. गोविंद राम कहते हैं- मैं सरकार को पद्मश्री लौटाना चाहता हूं. जो पद्मश्री न मेरे काम आ सकी, न मेरी कला के. आखिर उस पद्मश्री का क्या फायदा ?”वह 1950 का जमाना था, जब 1935 में जन्मे 15 साल के गोविंदराम निर्मलकर हबीब तनवीर के साथ पहली बार नाटक की दुनिया में उतरे. छत्तीसगढ़ के लोकनाट्य नाचा के कलाकार गोविंदराम ने 1954 में पहली बार दिल्ली थियेटर के लिये आगरा बाज़ार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उसके बाद तो आने वाले 50 साल जैसे गोविंदराम और हबीब तनवीर का नया थियेटर एक दूसरे की पहचान बन गये.
मिर्जा शोहरत बेग, बहादुर कलारिन, मिट्टी की गाड़ी, पोंगा पंडित, शाजापुर की शांतिबाई, गांव के नाम ससुरार मोर नाव दमाद, सोन सरार, जिन लाहौर नई वेख्‍या वो जन्‍म्या ई नई, कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना, वेणीसंघारम....और जाने कितने नाटक. एडिनबरा में चरणदास चोर के मंचन को याद करते हुए गोविंदराम निर्मलकर की आंखें चमकने लग जाती हैं- “52 देशों के नाट्य दल थे वहां और चरणदास चोर को श्रेष्ठ नाटक का सम्मान मिला. उसके बाद तो हमने दुनिया भर में उसका मंचन किया.छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गांव मोहरा से दुनिया के रंगमंच पर अपने अभिनय की छटा बिखेरने वाले गोविंदराम निर्मलकर जब अपने उम्र के आखरी पड़ाव में पहुंचे तो लगा कि अब अपनी जड़ों में ही रहकर कुछ किया जाये. लेकिन बीमारी ने इससे पहले उन्हें घेर लिया. हबीब तनवीर और उनकी मंडली को करीब से जानने वालों को पता है कि हबीब तनवीर की टीम के आधार स्तंभ माने जाने वाले मदन निषाद से लेकर भुलवाराम यादव और फिदाबाई मरकाम तक के आखरी दिन कैसे गुजरे हैं. ऐसे में गोविंदराम निर्मलकर के साथ कुछ अलग होने की उम्मीद कम ही थी. लेकिन जब सरकार ने उन्हें पद्मश्री के लिये चुना तो उम्मीद जगी कि देर से ही सही, कम से कम सरकार ने उनकी प्रतिभा को पहचाना तो सही. गोविंद राम अपनी पत्‍नी के साथ दिल्‍ली गये और पद्मश्री पाया. सम्मान लेकर अपने गृह जिले राजनांदगांव लौटे तो निर्मलकर के मन में कई अरमान थे. श्री निर्मलकर ने तब कहा‍ था कि वे लुप्‍त होती नाचा विधा को नई पीढी को सौंपकर वे दुनिया से विदा होना चाहते हैं लेकिन उनकी इस इच्‍छा पूर्ति में आड़े आ रहा था उनका स्‍वास्‍थ्‍य. लगभग 75 साल के गोविंद राम लकवा से पीड़ित थे और चाहते थे कि सरकार ने जब उन्‍हें यह सम्मान दिया है तो उनकी बीमारी को ठीक करने में मदद भी करे ताकि जिस नाचा कला के लिए उन्‍हें यह सम्मान मिला है, वह समय के साथ खत्‍म न हो. पर ऐसा नहीं हुआ. उन्हें कहीं से कोई मदद नहीं मिली. न अपने लिये न नाचा के लिये. सरकार की ओर से मिलने वाली 1500 की पेंशन ही उनके इलाज और घर चलाने के लिये आय का एकमात्र स्रोत है. और जरा हिसाब लगायें कि 1500 रुपये में आज के जमाने में क्या-क्या किया जा सकता है !
अपने टूटे फूटे घर में पुरानी यादों के साथ श्री निर्मलकर

श्री निर्मलकर का कहना है कि उन्‍होंने अपने स्‍वास्‍थ्‍य और आर्थिक दिक्‍कतों को लेकर राज्‍यपाल से लेकर मुख्‍यमंत्री और छत्तीसगढ़ के संस्कृति मंत्री तक के कई-कई चक्कर काटे. सबने आश्वासन दिया लेकिन हुआ कुछ नहीं. निर्मलकर कहते हैं- जब मैं इस विधा के लिए कुछ नहीं कर सकता और सरकार मेरे लिए कुछ नहीं कर सकती तो मैं इस पद्मश्री को रख कर क्या करुंगा. इस पद्मश्री के बाद कई लोगों ने मान लिया कि मुझे सरकार की ओर से सम्मान के साथ-साथ लाखों रुपये भी मिले होंगे. कोई यह मानने के लिये तैयार नहीं है कि कागज के इस सम्मान पत्र के अलावा मुझे सरकार से एक धेला तक नहीं मिला. मैं चाहता था कि छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य नाचा को मैं नई पीढ़ी को सौंप दूं, लेकिन अब अफसोस के साथ मुझे इस दुनिया से जाना होगा.
जाहिर है, अभी सरकार और सांस्कृतिक संगठनों के पास इस तरह के किसी अफसोस के लिये समय नहीं है. और हां, गोविंदराम निर्मलकर के लिये भी नहीं.


2 टिप्‍पणियां:

  1. पद्म्श्री विजेता पुरुष का यह दुर्भाग्य ईंगित करता है हमारे समाज के उस घिनौने सत्य का..जहां प्रतिभा को दाने-दाने का मोह्ताज बनाये जाने का खेल खेला जा रहा है..निर्मलकर जी की मदद के लिये इस सार्थक पोस्ट को पढ़ कर लोग सामनें आयें यही शुभकामना है..

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