पिछले दिनों कुछ ऐसा हुआ कि यह पोस्ट लिखने बैठना पडा। वैसे इस विषय पर दीपावली के बाद ही लिखना चाहता था लेकिन सोचा चलो जाने दो। भगवान इन लोगों को सदबुघ्दि दे देगा लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं और दीपावली में जो हुआ उसके बाद नए साल में भी उसकी पुनरावृत्ति हो गई। ... और मैंने कल अखबारों में पढा कि उत्तर प्रदेश के मुजफफरपुर में जल निगम के एक अफसर ने वहां के जिलाधिकारी को नए साल पर मिठाई के डिब्बे के साथ नोटों का ‘उपहार’ दिया। अपने मातहत अफसर की इस ‘गुस्ताखी’ पर जिलाधिकारी महोदय संतोष कुमार यादव हतप्रभ रह गये और उन्होंने अभियंता के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मामला दर्ज करा दिया। हालांकि जिलाधिकारी को नोटों का ‘उपहार’ देने वाले अभियंता इसे ‘गुस्ताखी’ नहीं कहते, वे कहते हैं कि वे जल्दबाजी में कोई उपहार नहीं खरीद सके इसलिए उन्होंने नोट ही दे दिया और उन्हें अपने किए पर पछतावा भी नहीं है।
मुझे याद आ गए हमारे एक जनप्रतिनिधि। प्रदेश की राजधानी में रहने वाले इन महाशय ने इस दीपावली पर एक नई परंपरा शुरू की। पत्रकारों को नोट बांटने की। राजनांदगांव में उनकी पार्टी के मीडिया मेनेजमेंट का काम देखने वाले और मुंह में हर समय ‘जय श्री राम’ रखने वाले शख्स को इस ‘महति’ जिम्मेदारी के योग्य समझा गया और उन्होंने दीपावली के बाद पत्रकारों को फोन कर अपने कार्यालय बुला-बुलाकर ‘लिफाफा’ थमाया। किसी पत्रकार को हजार का एक नोट किसी को दो तो किसी को तीन। जिसकी जितनी औकात, उसे उतना मिला(मुझे मेरी औकात का पता ही नहीं चल पाया क्योंकि मैं इन महाशय के दरवाजे गया ही नहीं)।
दीपावली के महीने भर बाद तक इस बात की चर्चा होती रही कि यह कैसी परंपरा शुरू कर दी गई ? इसके बाद आया नया साल। नए साल में फिर संदेश आया उन्हीं महाशयजी की ओर से कि एक और तोहफा है, आकर ले जाएं। चलो इस बार पत्रकारों को नोटों में नहीं नापा गया, चंद पत्रकारों को घडियां दी गईं। इस पर भी बवाल मच गया। कुछ पत्रकारों ने घडियों को अपने योग्य नहीं पाया और हो गए उत्तेजित। जला डाला एक नेता का पुतला। वे इस बात से नाराज नहीं थे कि नोट बांटने या घडी बांटने की यह क्या परंपरा, उनकी नाराजगी थी घडी घटिया है! अब देने वाले और लेने वाले ही जाने कि घडी कैसी थी?
दीपावली में बंटा नोट तो नए साल में इसी पार्टी के एक लालबत्ती धारी सज्जन भी कहां पीछे रहने वाले थे, उन्होंने भी उपहार बांटने का फैसला ले लिया। वैसे बता दूं कि ये सज्जन कई बार जनता का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं, मध्यप्रदेश के जमाने में मंत्री भी रहे, निगम मंडलों में भी काबिज रहे पर उनकी ओर से पत्रकारों को तोहफा पहली बार मिला। यहां भी मध्यस्थ बने वही जयश्रीराम वाले सज्जन। घडी घटिया है, यह कहते हुए पत्रकारों ने पुतला तक जला दिया, लेकिन बैग की शिकायत अब तक सामने नहीं आई है, सो ना जाने वह कैसा होगा।
पत्रकारवार्ताओं में उपहार, डायरी और पेन तक पत्रकारों को दिए जाने की बातें तो होती रहीं हैं लेकिन 2010 के आखिर में नोट बंटने और साल के शुरूआत में घडी और बैग बंटने ने एक नया अनुभव दिया। चुनावों के दौरान भी पत्रकारों को तोहफे और ‘पैकेज’ की आड में नोट मिलते हैं, पैड न्यूज की चर्चा होती है, लेकिन दीपावली और नए साल पर इस तरह के उपहारों ने एक नया अनुभव दिया।
उपहारों के इस आमंत्रण को अस्वीकार कर मैंने अपने मन की मान ली और शांत हो गया लेकिन कल जब अखबारों में उत्तरप्रदेश के जिलाधिकारी के कदम को देखा तो लगा कि यहां रिपोर्ट तो नहीं लिखा सकता, शायद कोई थाना मेरी रिपोर्ट लिखे भी न लेकिन मैं यह पोस्ट तो लिख ही सकता हूं। किसी को यदि बुरा लगे तो माफ करना।
आओ अतुल पानी में पानी लिखें
जवाब देंहटाएंकिशोरों और युवाओं के लिए उपयोगी ब्लॉगों की जानकारी जल्दी भेजिएगा
वाह अतुल जी...इसे कहते हैं "सोने के कम्बल में लपेट कर जूता मारना" वैसे साफगोई से कहूंगा कि नोट / घड़ी / और बैग का फोन तो एक पत्रकार होने के नाते मुझे भी आया था...पर मेरे एक स्नेही मित्र ने पहले ही सचेत कर रखा था कि क्वालिटी "चाईना मैड" है सो मैनें ख्याल छोड़ दिया...आखिर करें भी तो क्या??घर जो चलाना है...इस बेदम बढ़ती महँगाई ने सब का जीना मुहाल कर रखा है...राजा हो या रंक सब के सब इसकी चपेट में हैं...तो भला पत्रकार कहाँ बच पाते...पर परम्परा की शुरुवात जिन महाशय ने की है उन्हें जनतंत्र के चौथे स्तंभ को सहारा देने की बेशक नाजायज़ क़वायद की है..बहरहाल अच्छी पोस्ट !!
जवाब देंहटाएंसुन्दर व यथातथ्य वर्णन.....हर शाख पै उल्लू बैठा है अन्जामे गुलिश्तां.....
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