स्पेन, पुर्तगाल और अमेरिका का बुल फायटिंग (सांड युध्द) का नजारा मैंने टीवी पर देखा है..... रोमांच का आलम वहां होता है इस खेल के दौरान पर पिछले दिनों मैंने उससे ज्यादा रोमांच देखा छत्तीसगढ के वनांचल में। छत्तीसगढ के धुर नक्सल प्रभावित इलाके दंतेवाडा में इस तरह का रोमांच देखना अपने आप में अलग अनुभव था। वहां सांड युध्द तो नहीं पर मुर्गा लडाई जरूर देखने मिला और दौरान वहां दूर दूर गांव से आए आदिवासियों का उत्साह देखने लायक था। विश्व के कुछ देशों में सांड युध्द पर भले ही सवाल उठते रहे हों, इसे बंद करने की पशु प्रेमियों की मांगें उठती रही हों और संभवत: 2012 में कुछ जगहों पर इस पर प्रतिबंध भी लग जाएगा। .... पर छत्तीसगढ में मुर्गों के बीच की लडाई का नजारा अपने आप में गजब का अनुभव दे जाता है और साथ ही यह भी कि नक्सल हिंसा से त्रस्त लोग, जिनके पास मनोरंजन के सीमित साधन होते हैं, किस तरह एक परंपरा को लेकर उत्साहित होते हैं और इसमें खुलकर हिस्सा लेते हैं।
छत्तीसगढ की अपनी अलग संस्कृति है और इसके अलग रूप। राज्य का आदिवासी अंचल
संस्कृति और परंपरा की दृष्टि से समृद्ध है। इसी का एक हिस्सा है मुर्गा लडाई। अपने क्षेत्र के आदिवासी क्षेत्रों में मैंने पहले भी मुर्गा लडाई का नजारा देखा है पर इस ऐसा उत्साह नहीं। दंतेवाडा में हजारों की भीड इस रोमांच में शामिल नजर आई। न सिर्फ लडाई देखने बल्कि इस पर दांव लगाने भी। हर हाथ में रूपए थे और सब अपने पसंदीदा मुर्गे पर दांव लगाने उतारू थे। बताते हैं एक दिन में सौ से ज्यादा मुर्गे लडाई में शामिल होते हैं और दांव में लगते हैं लाखों रूपए। .... और सब कुछ व्यवस्थित होता है यहां। लडने वाले मुर्गों पर दांव लगता है और जिसका मुर्गा लडाई में जीतता है, वह हारने वाले मुर्गे का हकदार हो जाता है...... मामूली घायल होने पर वह उस मुर्गे को अगली लडाई के लिए तैयार करता है और यदि फिर से लडाई के लायक न रह पाए मुर्गा तो पार्टी...........!!!! ज्यादा कुछ नहीं लिखते हुए आपको ले चलता हूं मुर्गा लडाई के रोमांच की ओर.... तस्वीरों के जरिए..........
आपस में लडने के लिए उत्तेजित किए जा रहे मुर्गे |
वो देखो..... उसे है हराना |
जंग शुरू..... |
जोर आजमाईश..... |
कौन जीतेगा.......???? |
आज दांव पडेगा या नहीं........???? |
हर हाथ में हैं रूपए........ |
ये तो गया काम से........ |
इस औजार को बांधा जाता है मुर्गों के पैर में |
धार किया जा रहा है औजार, ताकि वार लगे जोरदार |
मेरा भी नम्बर आएगा....... |
दो हजार रूपए का मुर्गा....... |
मुर्गों का इस तरह खूनी खेल पशुप्रेमियों को नागवार गुजर सकता है..... पर यह सिर्फ आदिवासियों की परंपरा का हिस्सा है और नक्सलवाद के साए में मूलभूत जरूरतों को तरस रहे वनवासी लोगों के पास मनोरंजन और खुशी के प्रदर्शन का अदभुत तरीका है और यह पोस्ट इसी बात को प्रदर्शित करता है।
बेचारे मुर्गे!
जवाब देंहटाएंएक गहरी निःश्वास बस
जवाब देंहटाएंरोमांचक चित्र,... ऐसा भी होता है,..जानकारी के लिए आभार
जवाब देंहटाएंमेरी नई पोस्ट की चंद लाइनें पेश है....
सब कुछ जनता जान गई ,इनके कर्म उजागर है
चुल्लू भर जनता के हिस्से,इनके हिस्से सागर है,
छल का सूरज डूबेगा , नई रौशनी आयेगी
अंधियारे बाटें है तुमने, जनता सबक सिखायेगी,
पूरी रचना पढ़ने के लिए काव्यान्जलि मे click करे
Height of cruelty.
जवाब देंहटाएंRahul Singh
जवाब देंहटाएं8:44 PM (31 minutes ago)
कमेंट बाक्स पर टिप्पणी स्वीकार नहीं हो रही है, सो यहां-
''जबरदस्त रोमांच और उन्माद होता है लोगों में इसका''.
Oh ....NA jane kyon dekhkar kuchh achcha nahin laga ...
जवाब देंहटाएंअरे वाह!
जवाब देंहटाएंमुर्गा लड़े या गुर्गा!
मज़ा तो दोनों में ही आता है!
बस्तर में रहकर इस लड़ाई को देखा है, बीती यादें ताजा कर दीं.
जवाब देंहटाएंमन कुछ खिन्न सा हो जाता है ऐसा कुछ देखकर .....पता नहीं लोग ऐसा खेल क्यों खेलते हैं ?
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा ....अतुल जी अच्छा परिदृश्य चित्रित किया आपने ...
जवाब देंहटाएंमुझे ब्लॉग विस्तार हेतु आप से कुछ विचार विमर्श करना चाहती हूँ ...
आशा है आपका सहयोग प्राप्त करुगी ....बहुत -बहुत आभार
कडकनाथ्ा मुर्गा है। पुरानी परम्पराओं में मनोरंजन के ये ही साधन थे।
जवाब देंहटाएंमैने अपने ब्लाग में इस पर लिखा था.. इस खेल में और आदमी के अपने खेल में बहुत ज्यादा अन्तर नहीं दिखता...हश्र तो दौनों का ही एक है। ...
जवाब देंहटाएंbechare murge..
जवाब देंहटाएंkabhi inhe ladakar log maja lete hai...
to kabhi inhe kha kar....
kabhi to lagata hai inka jivan inka na hokar dusaro ka ho gaya hai..
संसद में होना चाहिए इसका मुकाबला .संसदीय परम्परा के अनुरूप रहेगा .मुर्गे लड़ाना खेल खेल में .खेल का खेल और संसद की संसद बहस मुबाहिसे का यही तो आज स्वरूप है .
जवाब देंहटाएंअफगानिस्तान के तालिबान का प्रिय खेल था , अंजाम तो पता ही है . अमानवीय .
जवाब देंहटाएंकिसी के लिए मनोरंजन है पर जान से तो बेचारा जानवर ही जाता है न... अमानवीय
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना .
जवाब देंहटाएंमाना की पूरनी परम्पराओं मे मानो राजन के यही साधन थे मगर आब तो नहीं यह मनोरंजन कम अत्याचार ज्यादा लगा मुझे तो ...
जवाब देंहटाएंapne kuch naya likha hai plz linke dijiye ??
जवाब देंहटाएंयह मनोरंजन नहीं , मनुष्य की पाशविक वृत्ति है जो उसकी आदिम भावना को संतुष्टि देती है ...
जवाब देंहटाएंइन पर रोक लगाई जानी चाहिए !
मनुष्य को अपनें मनोरंजन के नाम पर क्रूरता का अधिकार नहीं मिल जाता।
जवाब देंहटाएंसहमत इन सम्वेदनशील शब्दों से………
--अफगानिस्तान के तालिबान का प्रिय खेल था , अंजाम तो पता ही है . अमानवीय .
--किसी के लिए मनोरंजन है पर जान से तो बेचारा जानवर ही जाता है न... अमानवीय
--माना की पुरानी परम्पराओं मे मानोरंजन के यही साधन थे मगर आब तो नहीं यह मनोरंजन कम अत्याचार ज्यादा लगा मुझे तो ...
इंसान जो न कर डाले वह कम है....
जवाब देंहटाएं------
आपका स्वागत है..
.....जूते की पुकार।
आदिवासियों के लिये यह मनोरंजन का साधन हो सकता है, लेकिन इससे पशुओं के प्रति क्रूरता कम नहीं हो जाती.
जवाब देंहटाएंआदिवासियों.के मनोरंजन सुगम साधन है,..
जवाब देंहटाएंमेरी नई पोस्ट के लिए काव्यान्जलि मे click करे
अंत में उसे खाता कौन है..?
जवाब देंहटाएंपुरानी परम्पराओं में ये मनोरंजन के साधन थे पर इन रोक लगाई जानी चाहिए !
जवाब देंहटाएंऐसे मनोरंजन पर रोक लगाई जानी चाहिए ... बेहतरीन प्रस्तुति दी है आपने ...आभार ।
जवाब देंहटाएंअतुल जी,....आपके नए पोस्ट के इंतजार में,....
जवाब देंहटाएं"काव्यान्जलि"--नई पोस्ट--"बेटी और पेड़"--में click करे
परम्पराये अपनी अपनी
जवाब देंहटाएंपरम्पराओं का अपना अलग महत्व है..... मगर हर जीव में जीने की लालसा होती है. इस दृष्टी से उचित नहीं. बहरहाल चित्रमय प्रस्तुति बहुत ही खुबसूरत सजी है. सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंहैरान करता पोस्ट..
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुती, नए पोस्ट के इंतजार है ,.....
जवाब देंहटाएंनववर्ष की हार्दिक शुभकामनाए..
नई पोस्ट --"काव्यान्जलि"--"नये साल की खुशी मनाएं"--click करे...
अच्छा लेख |नववर्ष शुभ और मंगलमय हो |
जवाब देंहटाएंआशा
रोचक प्रस्तुति...नववर्ष की वधाई
जवाब देंहटाएंआप को सपरिवार नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंहमको तो भैया बहुत अच्छा लगा। यह मुर्गा दौड़ भी और आपकी रिपोर्टिंगा भी। मुर्गा लोग पालते ही क्यों हैं? अंडे के लिये या उसको काटकर/बेचकर पेट भरने के लिए। मुर्गा भी असंख्य मानव का एक व्यवसाय है जैसे मछली बेचना। यह अमानवीय भी नहीं है क्योंकि उस क्षेत्र की जनता के सबसे बढ़िया और सुलभ मनोरंजन का साधन है। हां, हम आप ऐसे अपने घर के कमरे में मुर्गा लड़ायें तो वह अमानवीय होगा। यह तो उस क्षेत्र की आवश्यकता लगती है। इसी बहाने जब तक जिवित रहते हैं मुर्गे का भाव चउचक बढ़ा रहता होगा:)
जवाब देंहटाएंआपको एवं आपके परिवार को नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं !
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