आदिवासी अंचलों, खासकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लिए एक खबर आई है। समझ नहीं आ रहा है कि इस खबर पर क्या प्रतिक्रिया दी जाए। इसे बेहतर कोशिश करार दिया जाए या फिर सरकारी कमजोरी का सबूत माना जाए। छत्तीसगढ़ के आदिवासी बाहुल्य जिलों बीजापुर, दंतेवाड़ा, नारायणपुर के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में चिकित्सकों की कमी को देखते हुए सरकार इन इलाकों के सरकारी अस्पतालों को निजी हाथों में सौंपने पर विचार कर रही है। इस काम के लिए हैदराबाद की एक निजी कंपनी ने दिलचस्पी भी दिखाई है, ऐसा पता चला है।
बड़ी हास्यास्पद और दिलचस्प स्थिति है। प्रदेश में जिसका राज है, वह अस्पतालों को चला नहीं पा रहा है और दूसरे राज्य की एक संस्था इस काम को करने के लिए तैयार बैठी है। इसमें हैदराबाद की उस संस्था की आलोचना नहीं तारीफ करनी चाहिए कि उसने ऐसा करने की हिम्मत दिखाई पर इस खबर में कहीं न कहीं सरकारी अमले की नीयत में खोट नजर आ रही है। अव्वल तो यह कि सरकार क्या इतनी कमजोर साबित हो रही है कि वह नक्सल इलाकों में अपने अस्पताल को खुद नहीं चला सकती और दूसरा यह कि उसने अभी इस पर विचार ही करना शुरू किया है कि निजी हाथों में सरकारी अस्पतालों को दे दिया जाए और इसे लेकर एक संस्था की इच्छा भी सामने आ गई। कहीं यह सब सरकारी अस्पतालों का निजीकरण कर इसकी आड़ में कमीशनखोरी की तैयारी तो नहीं? यदि ऐसा है तो यह बेहद चिंताजनक है और यदि ऐसा नहीं है तो भी यह सरकार के लिए शर्म की बात है।
नक्सल इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है। न सिर्फ स्वास्थ्य सुविधाओं का बल्कि हर तरह की बुनियादी जरूरतों का अभाव बना हुआ है। विकास की किरण अब तक नक्सल इलाकों में पूरी तरह से नहीं पहुंच पाई है और इसी वजह से इन इलाकों में नक्सलियों का पैर जम गया है। इस विषय पर पहले भी कई बार मैं कह चुका हूं कि विकास से ही नक्सलवाद का खात्मा किया जा सकता है। पर जो सरकार अपने नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधा तक उपलब्ध नहीं करा सकती, वह सरकार विकास की उम्मीदों पर कितना खरा उतर सकती है और नागरिकों की जरूरतों को कितना पूरा कर सकती है सोचने वाली बात है।
हैरान करने वाली बात है कि एक निजी संस्था बीजापुर, नारायणपुर और दंतेवाड़ा के सुदूर इलाकों में जाकर वहां स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करा सकती है। वहां डाक्टरों की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकती है लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर सकती। ऐसा क्यों? निजी संस्था के प्रयासों से यदि उन इलाकों में डाक्टर जा सकते हैं, तो जिनके पास पूरे संसाधन है, सब कुछ है, वह सरकार ऐसा क्यों नहीं कर सकती?
इन सब बातों का यह आशय न निकाला जाए कि सुदूर इलाकों में निजी हाथों में स्वास्थ्य सुविधाएं सौंपे जाने का विरोध कर हो रहा है। मैं ऐसा काम करने वाली संस्थाओं के हौसले को सलाम करता हूं, लेकिन यह सरकार के गाल पर तमाचे जैसा होगा कि जिस प्रदेश में राज करने का वो दावा करती है, उस प्रदेश में वास्तव में उसकी सरकार नहीं है, दहशत की सरकार है।
बड़ी हास्यास्पद और दिलचस्प स्थिति है। प्रदेश में जिसका राज है, वह अस्पतालों को चला नहीं पा रहा है और दूसरे राज्य की एक संस्था इस काम को करने के लिए तैयार बैठी है। इसमें हैदराबाद की उस संस्था की आलोचना नहीं तारीफ करनी चाहिए कि उसने ऐसा करने की हिम्मत दिखाई पर इस खबर में कहीं न कहीं सरकारी अमले की नीयत में खोट नजर आ रही है। अव्वल तो यह कि सरकार क्या इतनी कमजोर साबित हो रही है कि वह नक्सल इलाकों में अपने अस्पताल को खुद नहीं चला सकती और दूसरा यह कि उसने अभी इस पर विचार ही करना शुरू किया है कि निजी हाथों में सरकारी अस्पतालों को दे दिया जाए और इसे लेकर एक संस्था की इच्छा भी सामने आ गई। कहीं यह सब सरकारी अस्पतालों का निजीकरण कर इसकी आड़ में कमीशनखोरी की तैयारी तो नहीं? यदि ऐसा है तो यह बेहद चिंताजनक है और यदि ऐसा नहीं है तो भी यह सरकार के लिए शर्म की बात है।
नक्सल इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है। न सिर्फ स्वास्थ्य सुविधाओं का बल्कि हर तरह की बुनियादी जरूरतों का अभाव बना हुआ है। विकास की किरण अब तक नक्सल इलाकों में पूरी तरह से नहीं पहुंच पाई है और इसी वजह से इन इलाकों में नक्सलियों का पैर जम गया है। इस विषय पर पहले भी कई बार मैं कह चुका हूं कि विकास से ही नक्सलवाद का खात्मा किया जा सकता है। पर जो सरकार अपने नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधा तक उपलब्ध नहीं करा सकती, वह सरकार विकास की उम्मीदों पर कितना खरा उतर सकती है और नागरिकों की जरूरतों को कितना पूरा कर सकती है सोचने वाली बात है।
हैरान करने वाली बात है कि एक निजी संस्था बीजापुर, नारायणपुर और दंतेवाड़ा के सुदूर इलाकों में जाकर वहां स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करा सकती है। वहां डाक्टरों की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकती है लेकिन सरकार ऐसा नहीं कर सकती। ऐसा क्यों? निजी संस्था के प्रयासों से यदि उन इलाकों में डाक्टर जा सकते हैं, तो जिनके पास पूरे संसाधन है, सब कुछ है, वह सरकार ऐसा क्यों नहीं कर सकती?
इन सब बातों का यह आशय न निकाला जाए कि सुदूर इलाकों में निजी हाथों में स्वास्थ्य सुविधाएं सौंपे जाने का विरोध कर हो रहा है। मैं ऐसा काम करने वाली संस्थाओं के हौसले को सलाम करता हूं, लेकिन यह सरकार के गाल पर तमाचे जैसा होगा कि जिस प्रदेश में राज करने का वो दावा करती है, उस प्रदेश में वास्तव में उसकी सरकार नहीं है, दहशत की सरकार है।
सटीक कथन हैं आपके .विचारणीय चिंतनीय .
जवाब देंहटाएंशुक्रवार, 7 सितम्बर 2012
शब्दार्थ ,व्याप्ति और विस्तार :काइरोप्रेक्टिक
शब्दार्थ ,व्याप्ति और विस्तार :काइरोप्रेक्टिक
इस स्तंभ "कभी कभार "के तहत चिकित्सा पारिभाषिक शब्दावली का अर्थ और विस्तार (स्कोप )पर विमर्श ज़ारी रहेगा .यह पहली किस्त है .
काइरोप्रेक्टिक कुदरती स्वास्थ्य संभाल जीविका है जिसके लिए उच्च प्रशिक्षण और शिक्षा दोनों ही ज़रूरी हैं .गत सौ सालों से इसके माहिर हमारे बीच मौजूद हैं .अमरीका में यह वैकल्पिक और प्राकृत चिकित्सा का सबसे बड़ा पेशा है ,वैकल्पिक चिकित्सा की एक ख़ास किस्म है .
प्रदेश में वास्तव में उसकी सरकार नहीं है, दहशत की सरकार है।
जवाब देंहटाएंRECENT POST,तुम जो मुस्करा दो,
aaj kal sarkar ko aadat ho gai hai aise tamache khane ki ...usko koi fark nhi padta bas wo apne rajneetik hito main wyast hai ....gr8 acha likha apne
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
आज कल सरकार के पास सिवाय घोटालों के और कुछ सोचने के लिए है ही नहीं...कि वो और भी कुछ देख सुन सके। सशक्त आलेख...
जवाब देंहटाएंप्रदेश हो या देश !
जवाब देंहटाएंसरकारों को बने रहना चाहिये
करना इन्होने वैसे भी कुछ नहीं है
कम से कम चुनाव खर्च ही बचे !