दुनिया के सबसे बड़े गणतंत्र को बने 63 साल हो गए। इन तिरसठ सालों में काफी कुछ बदला है। एक बड़ा बदलाव यह हुआ है कि 'गण' गौण होता जा रहा है और 'तंत्र' हावी हो गया है। गणतंत्र के असली मायने गुम हो गए हैं और 'गणतंत्र' को 'गण' का 'तंत्र' बनाने वाला 'तंत्र' इतना हावी हो गया है कि 'गण' को इसमें घुटन होने लगी है।
आजादी के दीवानों ने जिन उम्मीदों के साथ लड़ाई शुरू की थी और उसे अंजाम तक पहुंचाया था, अब के दौर में सब कुछ भुला दिया गया है। सत्ता का स्वाद बाद के नेताओं को ऐसा भाया कि बाकी सब कुछ गौण होता गया और अब आजादी के 65 साल बाद और गणतंत्र के 63 साल बाद यदि मुड़कर देखा जाए तो काफी कुछ बदल गया है। अब जनता यानि गण की याद पांच साल में एक बार आती है और सत्ता यानि तंत्र के मौज हो गए हैं। आजादी मिलने के बाद जब देश को सुचारू रूप से चलाने की बात सामने आई और इसके लिए संविधान बनाने का काम किया गया तो उस वक्त जो भावनाएं थीं, वे गुम हो गई हैं। देश को आजादी मिलने से कुछ पहले से संविधान बनाने की कवायद शुरू कर दी गई थी और इसके लिए पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई थी। इस बैठक में 210 सदस्य उपस्थित थे। इसके दो दिन बाद यानि 11 दिसंबर 1946 को हुई संविधान सभा की दूसरी बैठक में डॉ. राजेंद्रप्रसाद को इसका स्थायी अध्यक्ष चुना गया जो अंत तक इस पद पर बने रहे। फिर दो दिन बाद यानि 13 दिसंबर 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान का उद्देश्य प्रस्ताव सभा में प्रस्तुत किया जो 22 जनवरी 1947 को पारित किया गया। काफी सारी बातों के साथ ही इसके उद्देश्य के मूल में था, भारत के नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय बराबर मिलेगा। पद, अवसर और कानूनों की समानता होगी। विचार, भाषण, विश्वास, व्यवसाय, संघ निर्माण और कार्य की स्वतंत्रता होगी। कानून तथा सार्वजनिक नैतिकता के अधीन प्राप्त होगी।
पर क्या यह है? सवाल एक है और इसके जवाब में काफी सारे तर्क दिए जा सकते हैं। काफी सारी बातें की जा सकती हैं। पर कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है, वो सपने अब भी अधूरे हैं। या ये कहें कि समय बीतने के साथ साथ सपने पूरे तो नहीं हुए, अलबत्ता और दूर होते चले गए।
हमें गणतंत्र हुए 63 साल हो गए और हम 64 वें साल में प्रवेश कर गए। यह वक्त सोचने का है कि इतने वर्षों में हम क्या हासिल कर पाए? जिन ख्वाबों को लेकर, जिन उम्मीदों को लेकर आजादी के दीवानों ने रण में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, जिन उम्मीदों के साथ देश का गणतंत्र लागू हुआ, क्या उन उम्मीदों पर हम खरा उतरे हैं? वास्तविकता तो यह है कि हम और भी पीछे जा रहे हैं। 1947 को देश की जमीन का बंटवारा हुआ था और अब इस दौर में इंसानों में, भावनाओं में और हर उस चीज में बंटवारा निरंतर जारी है, जिसका मानवीय सरोकार है। 1950 में हम गणतंत्र हुए थे और इस दौर में गण पीछे छूट गया है, तंत्र मजबूत हो गया है। मौजूदा दौर में सत्ता की लड़ाई इस कदर हावी हो गई है कि इसके सामने सब कुछ बौना नजर आने लगा है। आम आदमी की क्या जरूरतें हैं, इस पर किसी का ध्यान नहीं है, बस सब के सब अपना वोट बैंक मजबूत करने के काम में लगे हुए हैं। इस आपाधापी में आम भारतवासी की उम्मीदें, आम भारतवासी की भावनाएं कितनी आहत हो रही हैं, इस दिशा में सोचने की किसी को फुर्सत नहीं।
बीते साल देश ने दो बड़ा आंदोलन देखा। दोनों आंदोलन को देश की दशा और दिशा बदलने वाला बताया गया। एक आंदोलन की शुरूआत एक योगी ने की। लोगों को योग सिखाने वाले बाबा रामदेव ने देश के बाहर जमा काला धन को वापस देश में लाने की मांग को लेकर आंदोलन का आगाज किया और उन्होंने सपना दिखाया कि इससे भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी, देश में महंगाई खत्म हो जाएगी और देश के हर आम आदमी को आसानी से दो वक्त की रोटी नसीब होगी। उनके आंदोलन में लोग जुटे। फिर अचानक उनके आंदोलन को कुचल दिया गया। बाबा दोबारा रामलीला मैदान में पूरी ताकत के साथ आए और पांच दिनों तक उनकी लीला चलती रही। अपनी रणनीति को गोपनीय रखने की बात कहकर खूब भीड़ जमा की और आखिर में कांग्रेस को 'निपटाने' के संकल्प के साथ उन्होंने अपना अनशन खत्म कर दिया।
इन सबके बीच उभरे अन्ना हजारे। भारतीय सेना के पूर्व जवान और मौजूदा समय में बूढ़े हो चले अन्ना हजारे ने देश के लिए लडऩे का एक जज्बा पैदा किया। जन लोकपाल की मांग को लेकर लड़ाई शुरू की। उनका भी उद्देश्य था, भ्रष्टाचार का खात्मा, पर धीरे धीरे उनका जादू खत्म होता गया। इसके पीछे उनकी ही टीम के लोग शामिल थे। उनकी टीम के लोगों ने एक ऐसा मायाजाल बिछाया कि जनता पहले तो उसमें फंसती चली गई और जब जनता को होश आया तो इस टीम से उसका मोह भंग हो गया। आखिर में राजनीतिक दल के गठन की बात कर अन्ना का आंदोलन समाप्त हो गया और जनता एक बार फिर ठगी रह गर्ई। अब टीम अन्ना भंग हो गई है और सब अलग अलग राग गा रहे हैं। टीम अन्ना से टूटकर अलग हुए अरविंद केजरीवाल ने 'आम आदमी पार्टी' बना ली और उनके रास्ते अलग हो गए।
कितने दुर्भाग्य की बात है कि एक का आंदोलन राजनीतिज्ञों के सहयोग के साथ खत्म हो गया और दूसरे का आंदोलन राजनीतिक दल बनाने की बात को लेकर समाप्त हो गया। यदि सब कुछ राजनीति से ही संभव है तो फिर राजनीति को लेकर इतनी कड़वाहट क्यों दिखाई इन लोगों ने? क्यों देश की संसद को, क्यों देश के संविधान को कोसने का काम किया गया? इसका जवाब आने वाले वक्त में अन्ना हजारे की टीम और बाबा रामदेव को देना होगा।
अन्ना, रामदेव और केजरीवाल... इनको छोड़ भी दिया जाए तो गणतंत्र को बनाए रखने की जिम्मदारी निभाने वाली सरकारें क्या कर रही हैं? सिर्फ जनता को ठगने के अलावा कुछ नहीं किया जा रहा है। देश में जनता के लिए वो सारी चीजें सपने की तरह हैं, जो आजादी के समय देखी और दिखाई गई थीं, जो उम्मीदें गणतंत्र के गठन के दौरान की गई थीं। आज भी देश की पूरी आबादी को दो वक्त का खाना मयस्सर नहीं हो रहा है और भ्रष्टाचार जो पहले सैकड़ों और हजारों में था, उसने करोड़ों और अरबों, खरबों तक का सफर तय कर लिया है। महंगाई चरम पर है। दंगोंं में कोई कमी नहीं आई है। देश के तकरीबन हर हिस्से में जात पात, ऊंच नीच के नाम पर अत्याचार हो रहे हैं। मुंबई जल रहा है। दिल्ली अछूती नहीं। गुजरात के दंगे पूरे देश का अमन छीन लेते हैं। असम में बोडो उग्रवाद का आतंक है तो छत्तीसगढ़ सहित देश के आधे से ज्यादा राज्य नक्सलवाद की खूनी क्रांति में जल रहे हैं। लिंग भेद हावी है। बेटियों को जलाया जा रहा है। आज के दौर में सब कुछ महंगा है, सस्ती है तो इंसानी जान!
आज गणतंत्र की वर्षगांठ है। यह अवसर आत्ममंथन का है। यह विचारने का है कि देश में व्याप्त तमाम तरह की विसंगतियों से किस तरह छुटकारा पाया जा सके? किस तरह उन सपनों को साकार किया जा सके, जिसकी कभी उम्मीद जगाई गई थी। आखिर में सब अच्छा हो, इसी उम्मीद के साथ, इसी कामना के साथ गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं...
आजादी के दीवानों ने जिन उम्मीदों के साथ लड़ाई शुरू की थी और उसे अंजाम तक पहुंचाया था, अब के दौर में सब कुछ भुला दिया गया है। सत्ता का स्वाद बाद के नेताओं को ऐसा भाया कि बाकी सब कुछ गौण होता गया और अब आजादी के 65 साल बाद और गणतंत्र के 63 साल बाद यदि मुड़कर देखा जाए तो काफी कुछ बदल गया है। अब जनता यानि गण की याद पांच साल में एक बार आती है और सत्ता यानि तंत्र के मौज हो गए हैं। आजादी मिलने के बाद जब देश को सुचारू रूप से चलाने की बात सामने आई और इसके लिए संविधान बनाने का काम किया गया तो उस वक्त जो भावनाएं थीं, वे गुम हो गई हैं। देश को आजादी मिलने से कुछ पहले से संविधान बनाने की कवायद शुरू कर दी गई थी और इसके लिए पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई थी। इस बैठक में 210 सदस्य उपस्थित थे। इसके दो दिन बाद यानि 11 दिसंबर 1946 को हुई संविधान सभा की दूसरी बैठक में डॉ. राजेंद्रप्रसाद को इसका स्थायी अध्यक्ष चुना गया जो अंत तक इस पद पर बने रहे। फिर दो दिन बाद यानि 13 दिसंबर 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान का उद्देश्य प्रस्ताव सभा में प्रस्तुत किया जो 22 जनवरी 1947 को पारित किया गया। काफी सारी बातों के साथ ही इसके उद्देश्य के मूल में था, भारत के नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय बराबर मिलेगा। पद, अवसर और कानूनों की समानता होगी। विचार, भाषण, विश्वास, व्यवसाय, संघ निर्माण और कार्य की स्वतंत्रता होगी। कानून तथा सार्वजनिक नैतिकता के अधीन प्राप्त होगी।
पर क्या यह है? सवाल एक है और इसके जवाब में काफी सारे तर्क दिए जा सकते हैं। काफी सारी बातें की जा सकती हैं। पर कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है, वो सपने अब भी अधूरे हैं। या ये कहें कि समय बीतने के साथ साथ सपने पूरे तो नहीं हुए, अलबत्ता और दूर होते चले गए।
हमें गणतंत्र हुए 63 साल हो गए और हम 64 वें साल में प्रवेश कर गए। यह वक्त सोचने का है कि इतने वर्षों में हम क्या हासिल कर पाए? जिन ख्वाबों को लेकर, जिन उम्मीदों को लेकर आजादी के दीवानों ने रण में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, जिन उम्मीदों के साथ देश का गणतंत्र लागू हुआ, क्या उन उम्मीदों पर हम खरा उतरे हैं? वास्तविकता तो यह है कि हम और भी पीछे जा रहे हैं। 1947 को देश की जमीन का बंटवारा हुआ था और अब इस दौर में इंसानों में, भावनाओं में और हर उस चीज में बंटवारा निरंतर जारी है, जिसका मानवीय सरोकार है। 1950 में हम गणतंत्र हुए थे और इस दौर में गण पीछे छूट गया है, तंत्र मजबूत हो गया है। मौजूदा दौर में सत्ता की लड़ाई इस कदर हावी हो गई है कि इसके सामने सब कुछ बौना नजर आने लगा है। आम आदमी की क्या जरूरतें हैं, इस पर किसी का ध्यान नहीं है, बस सब के सब अपना वोट बैंक मजबूत करने के काम में लगे हुए हैं। इस आपाधापी में आम भारतवासी की उम्मीदें, आम भारतवासी की भावनाएं कितनी आहत हो रही हैं, इस दिशा में सोचने की किसी को फुर्सत नहीं।
बीते साल देश ने दो बड़ा आंदोलन देखा। दोनों आंदोलन को देश की दशा और दिशा बदलने वाला बताया गया। एक आंदोलन की शुरूआत एक योगी ने की। लोगों को योग सिखाने वाले बाबा रामदेव ने देश के बाहर जमा काला धन को वापस देश में लाने की मांग को लेकर आंदोलन का आगाज किया और उन्होंने सपना दिखाया कि इससे भ्रष्टाचार से मुक्ति मिलेगी, देश में महंगाई खत्म हो जाएगी और देश के हर आम आदमी को आसानी से दो वक्त की रोटी नसीब होगी। उनके आंदोलन में लोग जुटे। फिर अचानक उनके आंदोलन को कुचल दिया गया। बाबा दोबारा रामलीला मैदान में पूरी ताकत के साथ आए और पांच दिनों तक उनकी लीला चलती रही। अपनी रणनीति को गोपनीय रखने की बात कहकर खूब भीड़ जमा की और आखिर में कांग्रेस को 'निपटाने' के संकल्प के साथ उन्होंने अपना अनशन खत्म कर दिया।
इन सबके बीच उभरे अन्ना हजारे। भारतीय सेना के पूर्व जवान और मौजूदा समय में बूढ़े हो चले अन्ना हजारे ने देश के लिए लडऩे का एक जज्बा पैदा किया। जन लोकपाल की मांग को लेकर लड़ाई शुरू की। उनका भी उद्देश्य था, भ्रष्टाचार का खात्मा, पर धीरे धीरे उनका जादू खत्म होता गया। इसके पीछे उनकी ही टीम के लोग शामिल थे। उनकी टीम के लोगों ने एक ऐसा मायाजाल बिछाया कि जनता पहले तो उसमें फंसती चली गई और जब जनता को होश आया तो इस टीम से उसका मोह भंग हो गया। आखिर में राजनीतिक दल के गठन की बात कर अन्ना का आंदोलन समाप्त हो गया और जनता एक बार फिर ठगी रह गर्ई। अब टीम अन्ना भंग हो गई है और सब अलग अलग राग गा रहे हैं। टीम अन्ना से टूटकर अलग हुए अरविंद केजरीवाल ने 'आम आदमी पार्टी' बना ली और उनके रास्ते अलग हो गए।
कितने दुर्भाग्य की बात है कि एक का आंदोलन राजनीतिज्ञों के सहयोग के साथ खत्म हो गया और दूसरे का आंदोलन राजनीतिक दल बनाने की बात को लेकर समाप्त हो गया। यदि सब कुछ राजनीति से ही संभव है तो फिर राजनीति को लेकर इतनी कड़वाहट क्यों दिखाई इन लोगों ने? क्यों देश की संसद को, क्यों देश के संविधान को कोसने का काम किया गया? इसका जवाब आने वाले वक्त में अन्ना हजारे की टीम और बाबा रामदेव को देना होगा।
अन्ना, रामदेव और केजरीवाल... इनको छोड़ भी दिया जाए तो गणतंत्र को बनाए रखने की जिम्मदारी निभाने वाली सरकारें क्या कर रही हैं? सिर्फ जनता को ठगने के अलावा कुछ नहीं किया जा रहा है। देश में जनता के लिए वो सारी चीजें सपने की तरह हैं, जो आजादी के समय देखी और दिखाई गई थीं, जो उम्मीदें गणतंत्र के गठन के दौरान की गई थीं। आज भी देश की पूरी आबादी को दो वक्त का खाना मयस्सर नहीं हो रहा है और भ्रष्टाचार जो पहले सैकड़ों और हजारों में था, उसने करोड़ों और अरबों, खरबों तक का सफर तय कर लिया है। महंगाई चरम पर है। दंगोंं में कोई कमी नहीं आई है। देश के तकरीबन हर हिस्से में जात पात, ऊंच नीच के नाम पर अत्याचार हो रहे हैं। मुंबई जल रहा है। दिल्ली अछूती नहीं। गुजरात के दंगे पूरे देश का अमन छीन लेते हैं। असम में बोडो उग्रवाद का आतंक है तो छत्तीसगढ़ सहित देश के आधे से ज्यादा राज्य नक्सलवाद की खूनी क्रांति में जल रहे हैं। लिंग भेद हावी है। बेटियों को जलाया जा रहा है। आज के दौर में सब कुछ महंगा है, सस्ती है तो इंसानी जान!
आज गणतंत्र की वर्षगांठ है। यह अवसर आत्ममंथन का है। यह विचारने का है कि देश में व्याप्त तमाम तरह की विसंगतियों से किस तरह छुटकारा पाया जा सके? किस तरह उन सपनों को साकार किया जा सके, जिसकी कभी उम्मीद जगाई गई थी। आखिर में सब अच्छा हो, इसी उम्मीद के साथ, इसी कामना के साथ गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं...
सभी देशवासियों को हार्दिक शुभकामनायें ...हालात अफसोसजनक ही हैं, कोशिशें सबको मिलकर ही करनी होंगीं ....
जवाब देंहटाएंवन्देमातरम् ! गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख है । वन्दे मात्रम
जवाब देंहटाएंहर आलेख एक गंभीर चिंतन
जवाब देंहटाएंगंभीर विचारणीय पोस्ट ,,,
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाए,,,
recent post: गुलामी का असर,,,
बहुत अच्छी पोस्ट अतुल जी....
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन.
गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !!
अनु
आज जो भी यह सोचता है कि परिवर्तन राजनीति से होगा, वह भ्रमित है। परिवर्तन सदैव सामाजिक क्रान्तियों से होता है, यदि ये आंदोलन सामाजिक क्रान्ति को जारी रखते तो देश परिवर्तित हो जाता। लेकिन ये भी राजनीति की चकाचौध से अपने को बचा नहीं पाए और स्वयं उस का हिस्सा बन गए। कीचड़ को साफ करने के लिए स्वयं कीचड़ बनना कहां की समझदारी है?
जवाब देंहटाएंगलतियाँ हमारी तरफ से हुई हैं तो सुधार भी हमसे ही होगा |
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट
शुभकामनायें
सादर
वास्तविकता उकेरती सार्थक पोस्ट |
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर ,भावपूर्ण रचना ...
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट .........बधाई मित्र
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