08 मार्च 2011

सोच का सीमित दायरा



गुगल से साभार 
अंतरराष्‍ट्रीय महिला दिवस है आज। आज के दिन महिलाओं की स्‍वतंत्रता और उनके अधिकारों को लेकर सरकारी और गैर सरकारी स्‍तर पर अनेक आयोजन होंगे। (ये अलग बात है कि सिर्फ आयोजन होंगे और जनता के पैसों पर नेता अफसर मौज उडाएंगे, होगा कुछ नहीं)। बीते युगों में नारी को देवी और शक्ति का प्रतीक बताया गया, आज भी  इसे हम मानते हैं पर  क्‍या सच में नारी को वो दर्जा मिल रहा है जिसकी वह हकदार है, सोचने वाली बात है।
आज के दिन मुझे याद आ रहा है एक किस्‍सा जो मेरे एक मित्र ने मुझे सुनाया था। लिंग समानता विषय पर एक एनजीओ के माध्‍यम से काम करने वाले मेरे एक मित्र ने मुझे यह किस्‍सा बताते हुए कहा था कि वह जब भी ऐसी किसी कार्यशाला में जाता है जहां महिलाओं के अधिकार और महिलाओं की स्‍वतंत्रता की बात होती है, यह किस्‍सा जरूर सुनाता है। किस्‍से  के माध्‍यम से मौजूद लोगों से सवाल करता है। उसके मुताबिक अक्‍सर जवाब सही नहीं मिलता।
किस्‍सा कुछ इस प्रकार है, ‘’  एक व्‍यक्ति अपने बेटे को मोटर सायकल में लेकर कहीं जा रहा होता है और उन दोनों का एक्‍सीडेंट हो जाता है। एक्‍सीडेंट में उस व्‍यक्ति की मौत हो जाती है और उसका बेटा गंभीर रूप से घायल हो जाता है। राह चलते लोग भीड लगा देते हैं लेकिन उस घायल बच्‍चे को उठाकर अस्‍पताल ले जाने की जहमत कोई नहीं उठाता। तभी उधर से एक थानेदार साहब गुजरते हैं। वे देखते हैं एक्‍सीडेंट हो गया है। वे पास जाते हैं। घायल पर उनकी नजर पडती है और वे यह देखकर दुखी हो जाते हैं कि घायल होने वाला बच्‍चा और कोई नहीं उनका अपना बेटा है। वे उसे तत्‍काल अस्‍पताल ले जाते हैं। अब बताईए बच्‍चे का पिता तो सडक हादसे में मृत हो जाते हैं तो  यह थानेदार साहब कौन है जो उस बच्‍चे को अपना बेटा कह कर अस्‍पताल ले जाते हैं।‘’
लोग इस कहानी में चक्‍कर में आ जाते हैं और बच्‍चे के पिता को लेकर भ्रम में पड जाते हैं, लेकिन किसी के दिमाग में नहीं आता कि बच्‍चे को अपना बेटा कहकर अस्‍पताल ले जाने वाले थानेदार साहब बच्‍चे की मां थीं। लोग लिंग भेद में इस कदर डूबे रहते हैं कि उनके सामने थानेदार के रूप में  मूछों वाले पुरूष का ही चेहरा दिखता है। एक महिला भी थानेदार हो सकती है, वे यह नहीं सोच पाते।
सालों से हम महिला दिवस मना रहे हैं। सरकारी और गैर सरकारी स्‍तर पर आयोजन होते हैं और महिलाओं की तरक्‍की, उत्‍थान को लेकर भाषण पढे जाते हैं लेकिन अमल नहीं होता। यह एक सवालिया निशान है समाज के लिए।
महिला दिवस पर बस इतना ही। नारी शक्ति को प्रणाम।

28 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद सुदर प्रस्तुति
    कथनी और करनी मैं फर्क हुआ करता है. इस बीमारी को दूर करने पे ही सही हल संभव है.
    नारी मनुष्य का निर्माण करती है.नारी समाज की प्रशिक्षक है और उसके लिए आवश्यक है कि सामाजिक मंच पर उसकी रचनात्मक उपस्थिति हो

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  2. बहुत सार्थक चिंतन .... सिर्फ बातें करने से कोई बदलाव नहीं आ सकता ...... वो भी वातानुकूलित कक्षों में बैठकर...... बेहतरीन पोस्ट ...आभार

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  3. साल में एक बार महिला दिवस पर हमेशा की तरह ढोल बजाये जायेंगे...बड़ी बड़ी बातें होंगीं और महिलाओं की स्तिथि वैसी ही रहेगी जैसी अब तक रहती आई है...हमें रोज महिला दिवस मनाना चाहिए तब शायद कुछ बात बने...

    नीरज

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  4. अतुल भाई बिलकुल सत्य कहा आप ने..
    सच्चाई बताऊँ तो कहानी में थानेदार का जिक्र होते ही एक पुरुष का रोबीला चेहरा ही मेरे भी जहन में आया.
    मगर नारी शसक्तीकरण के अवसर पर ही हमारे एक मुख्यमंत्री ने उनके लिए कोटा निर्धारण की बात कह कर उन्हें कमजोर साबित करने की शुरुवात कर दी..
    महिला दिवस मानाने से कुछ बदलाव नहीं होगा.बदलाव हमारी मानसिकता में करना होगा.
    बहुत अच्छी रचना...
    बधाइयाँ..

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  5. अतुल भाई,आपने लेख के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया।
    आभार

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  6. अतु्ल जी लेख के माध्यम से बहुत गहरी बात कह दी है………………सच कहा महिला दिवस की सार्थकता तभी है जब हम इसे अमल मे लायेंगे और मुझे गर्व है कि मै काफ़ी हद तक अमल मे लाती हूँ ………इसी बात पर एक किस्सा सुनाती हूँ अपने ही घर का………अभी मेरे बेटे के पेपर खत्म हुये तो वो अपने दोस्तो के साथ घूमने जा रहा था तो मैने उससे पूछा तेरे साथ और कौन जा रहा है यहाँ से…………इस बात पर मेरी बेटी ने कहा………मम्मी मेरे से तो कभी आप ये पूछते नही और वो लडका है उससे पूछ रही हो जबकि मै लडकी हूं और आपको ये बात तो मुझसे पूछनी चाहिये जबकि आप कभी नही पूछतीं और मेरे दोस्तो के यहाँ तो इससे उलट होता है तो मैने उसे यही कहा कि बेटा हमने तुझे कभी बेटे से कम माना ही नही या कहो तुझमे कभी फ़र्क समझा ही नही…………और यही सच भी है …………मेरे ख्याल से सभी को इसी तरह अमल मे लाना होगा तभी बदलाव संभव है।

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  7. acha hai ...sahi hai jarurat bas maansikta badalne ki hai..sab to khud ho jayega....

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  8. आपका कहना सही है ...आपने इन दिवसों की प्रासंगिकता पर सही ढंग से प्रकाश डाला है

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  9. लेकिन अमल नहीं होता। यह एक सवालिया निशान है समाज के लिए।
    बेहतरीन पोस्ट ...आभार

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  10. नीरज जी की यह बात पसंद आई;
    "हमें रोज महिला दिवस मनाना चाहिए तब शायद कुछ बात बने..."

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  11. बिलकुल सत्य कहा आप ने| धन्यवाद|

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  12. महिला दिवस की निरर्थकता सिद्ध करते , इस बेहतरीन लेख के लिए बधाई ।

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  13. कल महिला दिवस पर दिल्ली में एक छात्रा की हत्या कर दी गई, एक बुज़ुर्ग महिला को मार दिया गया, मुंबई में एक महिला ने अपने दो बच्चों को 19वीं मंज़िल से फेंकने के बाद खुदकुशी कर ली...इन घटनाओं पर हर तरफ़ यही शोर मचा कि महिला दिवस पर ये सब हुआ...मेरा सवाल ये है कि ये बताने पर इतना ज़ोर क्यों कि महिला दिवस पर ये सब हुआ...तो क्या साल के बाकी 364 दिनों में ऐसी घटनाएं अगर होती हैं तो वो आम बात है, उन पर आसमान नहीं टूटना चाहिए...और यही हमारे देश की हक़ीक़त है...

    जय हिंद...

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  14. हिन्दुस्तानी आदमी महिला दिवस बाहर वाली महिलाओं के लिए मनाता है......घर में तो वो खालिस मर्द ही रहता है .....वैसे किस्सा दिलचस्प है !

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  15. महिला दिवस की निरर्थकता सिद्ध करते , इस बेहतरीन लेख के लिए आपका बहुत - बहुत आभार..

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  16. सच्चाई बयान की है आपने, शुभकामनायें ! !!

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  17. @khushdeep
    its important because the woman are treated as "devi " here in india and on woman day when something like this happens we understand what the devi is really

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  18. रोचक....नारी शक्ति को प्रणाम

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  19. im a woman..and single child of my parents..im taking care of them...iam able to do all kind of works..but still i feel...men takes women for granted...hame samaj ke ye opurane reeti rivaaj todne honge tabhi mahilaye apna saccha sthan pa sakengi...

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  20. Saty kaha hai aapne ... darasal ham naari ki ahmiyat nahi sanajhna chaahte samaaj mein .. bas kori baat karna chaahte hain ...

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  21. हर दिन के बाद तीन सौ चौंसठ दिन शेष रह जाते हैं और हम हर दिन उनकी चिंता के बिना ताम झाम में लगे रहते हैं !

    बेहतर किस्सा ! बेहतर प्रस्तुति !

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  22. लेख में उल्लेखित कहानी आंख खोल देने वाली कहानी है। इस कहानी से बहुत बड़ी सीख मिलती है।

    नारी शक्ति को नमन।

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  23. यह अक्सर पूछे जाने वाल प्रश्न है लेकिन यह अंग्रेजी में चलता है न कि हिन्दी में। आपने लिखा,
    'एक थानेदार साहब गुजरते हैं। वे देखते हैं एक्‍सीडेंट हो गया है। वे पास जाते हैं। घायल पर उनकी नजर पडती है और वे यह देखकर दुखी हो जाते हैं'
    हिन्दी में यदि महिला थानेदार होगी तब सवाल यह होगा,
    'एक थानेदार साहिबा गुजरती हैं। वे देखती हैं एक्‍सीडेंट हो गया है। वे पास जाती हैं। घायल पर उनकी नजर पडती है और वे यह देखकर दुखी हो जाती हैं'

    जिस तरह से आपने यह हिन्दी में लिखा है उससे तो पुरुष ही लगता है।

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  24. कहानी कुछ अधूरी नहीं लगी ? सबसे पहले तो उपर की टिप्पणी में जो मुद्दा उन्मुक्तजी ने उठाया है वह छूटा हुआ है फिर यदि घायल थानेदार साहब का बेटा है तो म़ृतक तो थानेदार साहब का पति है जो बेटे से कम कीमती नहीं है । फिर थानेदार साहब की उस मृतक या पति के प्रति जिम्मेदारी व शोक संवेदना कहाँ गायब हो गई ?

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  25. अच्छी अभिव्यक्ति .....
    होली के पावन पर्व की हार्दिक बधाई .....

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  26. आपको और समस्त परिवार को होली की हार्दिक बधाई और मंगल कामनाएँ ....

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