एक और जवान शहीद हो गया। अखबारों के पहले पन्ने की सुर्खियां बनीं, ‘ एक और जवान बीजापुर में शहीद’। इसके बाद दूसरे दिन तिरंगे में लिपटा हुआ एक 30 साल के जवान का शरीर उसके घर पहुंचता है। शोक का माहौल। घर में, परिवार में, मोहल्ले में, पूरे शहर में। बस कहानी क्या यहीं खत्म हो जाती है। नहीं, कहानी यहां से शुरू होती है। एक दर्द भरी कहानी।
शहीद होने वाला जवान अपने परिवार का इकलौता कमाऊ पूत था। उसके अलावा उसके परिवार में एक छोटा भाई, जो 12वीं पढता है। एक मां जिसने अपने बेटे को अपनी छाती से दूध पिलाकर इस लायक बनाया कि वह देश के लिए मरने मारने की ताकत हासिल कर सका। और एक बाप जिसने न जाने क्या क्या तकलीफें सहीं और फिर बेटे को इस काबिल बनाया कि वह कुछ बन सके। परिवार का पेट भरने के लायक काम कर सके।
और वह बेटा। वह बेटा जो भरती हो गया पुलिस में। सीआरपीएफ का हिस्सा बन गया। आसाम में तैनात रहा। बाद में अपने राज्य छत्तीसगढ में तैनाती पाई। बीजापुर में उसे नक्सलियों के खिलाफ लडने का मौका मिला। लडा भी वह। जान लडाकर लडा। और फिर एक दिन वह नहीं आया अपने घर, उसका शरीर आया। तिरंगे में लिपटकर।
कहानी का नायक है, ओंकार सिन्हा। मां बम्लेश्वरी की धरा डोंगरगढ के रहने वाले नंदू राम सिन्हा के बडे बेटे ओंकार में देश के लिए पहले से ही कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी। ओंकार को जानने वाले और उसके यार दोस्त बताते हैं कि ओंकार काफी सीधा साधा और दिलेर लडका था। ओंकार ने इसे साबित भी कर दिया। दो दिन पहले बस्तर अंचल के बीजापुर में नक्सलियों के एक हमले में ओंकार शहीद हो गया। ओंकार तो चला गया लेकिन अपने पीछे छोड गया कई सवाल। सबसे बडा सवाल कि कब थमेगा नक्सलियों का यह खूनी खेल? जिसमें न जाने कितने घरों के चिराग स्वाहा हो रहे हैं। न जाने कितने सुहागिनों की मांगे सूनी हो रही हैं। न जाने कितने बच्चों के सिर से उनके पिता का साया छिन रहा है। आखिर कब तक? नक्सलियों का यह खूनी खेल कब तक?
जब जब इन सवालों का जवाब नहीं मिलेगा कहानी अधूरी रहेगी।
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