उसकी उमर कोई 21 साल है। वैसे तो 21 साल की उमर कोई बडी उमर नहीं होती लेकिन इस कम उम्र में उसने काफी कुछ झेला है। उसका नाम संध्या है। आज से पहले यदि उसका नाम मेरे जेहन में आया होता तो शायद उसे लेकर मन में क्रोध और नफरत का भाव आता पर आज ये भाव नहीं आ रहे... आज उस पर दया आ रही है और सोच रहा हूं कि उसने न जाने कितनी तकलीफें देखी होंगी.... क्या क्या सहा होगा.... पर अब उम्मीद है कि उसकी जिंदगी सामान्य हो जाए।
संध्या उर्फ शिबा जिसे नक्सलियों ने नाम दिया था उर्मिला.... किस इलाके की रहने वाली है स्थान का नाम मायने नहीं रखता पर मायने रखता है स्थान का परिवेश। आदिवासी इलाका जहां की रहने वाली थी संध्या.... उसके गांव में अक्सर नक्सलियों की धमक होती रहती और नक्सलियों के बैनर पोस्टर गांव में लगे होते.... ऐसे ही किसी पोस्टर को पढकर प्रभावित होकर संध्या ने नक्सली बनने का मन बनाया। वर्ष 2005 की बात है। तब वह दसवीं कक्षा में पढती थी। उसने गांव में रहने वाले अपने कुछ सहपाठियों से नक्सलियों के बारे में बात की तो उसे पता चला कि फलां दिन नक्सली गांव में बैठक लेने वाले हैं। वो भी पहुंच गई। उसने नक्सलियों की बातें सुनीं। क्रांति, जन जागृति और समाज में फैले अंतर को मिटाने की बातें.... संध्या प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकीं। वो पहुंच गई नक्सलियों के पास.... पर नक्सलियों ने उसे पुलिस का मुखबिर समझा और उस पर यकायक भरोसा नहीं किया.... काफी सवाल जवाब के संध्या आखिर समाज को बदलने(?) का ईरादा लेकर नक्सलियों के साथ हो गई। उसे नया नाम दिया गया, उर्मिला। अब उर्मिला वहां बन गई दलम एवं मोबाइल मास एकेडमी शिक्षिका। उसका काम था कम पढे लिखे नक्सलियों को पढाना और नक्सलियों के पोस्टर पाम्पलेट का मैटर लिखना। वो घायल नक्सलियों का उपचार भी करती, उन्हें दवाएं भी देतीं और इंजेक्शन भी लगाती। बाद में मास टीम को भंग कर दिया गया, पर उर्मिला का काम जारी रहा।
नक्सलियों के साथ रहते ही उसकी मुलाकात सुभाष से हुई। सुभाष जिसका नक्सली नाम आयतु था, नक्सलियों की दर्रकसा दलम का कमांडर था। सुभाष से उसकी शादी हो गई, लेकिन उनका वैवाहिक जीवन ज्यादा नहीं चला और 2007 में आयतु पुलिस के हाथ लग गया। वो अभी जेल में है। उधर जिस विचारधारा को लेकर संध्या नक्सलियों के साथ गई थी वो हवा होने लगे और धीरे धीरे उसे समझ आने लगा कि हकीकत क्या है।
संध्या के ही शब्दों में, नक्सलियों की जिन विचारधाराओं, भगत सिंह के अधूरे सपने को साकार करने, गरीब आदिवासियों को भूमि और वनोपज का लाभ दिलाने जैसे कई काम करने वह संगठन में शामिल हुई थी लेकिन कुछ ही दिनों में उसे वास्तविकता का आभास होने लगा। वो कहती है कि नक्सली जो बातें करते हैं और जो काम करते हैं उसमें जमीन आसमान का अंतर है.... सब ढोंग है.... महिला उत्थान की बात करते हैं पर ये सरासर गलत है। वो कहती है कि युवाओं को अपनी ओर आकर्षित कर उनका शोषण किया जाता है और पार्टी फंड के नाम पर अवैध वसूली की जाती है। वो यह भी खुलासा करती है कि नक्सलियों के उपरी कैडर में आंध्र प्रदेश और अन्य राज्यों के लोग हावी हैं और छत्तीसगढ के आदिवासियों को सिर्फ शोषण और काम के लिए रखा जाता है।
संध्या के ही शब्दों में, नक्सलियों की जिन विचारधाराओं, भगत सिंह के अधूरे सपने को साकार करने, गरीब आदिवासियों को भूमि और वनोपज का लाभ दिलाने जैसे कई काम करने वह संगठन में शामिल हुई थी लेकिन कुछ ही दिनों में उसे वास्तविकता का आभास होने लगा। वो कहती है कि नक्सली जो बातें करते हैं और जो काम करते हैं उसमें जमीन आसमान का अंतर है.... सब ढोंग है.... महिला उत्थान की बात करते हैं पर ये सरासर गलत है। वो कहती है कि युवाओं को अपनी ओर आकर्षित कर उनका शोषण किया जाता है और पार्टी फंड के नाम पर अवैध वसूली की जाती है। वो यह भी खुलासा करती है कि नक्सलियों के उपरी कैडर में आंध्र प्रदेश और अन्य राज्यों के लोग हावी हैं और छत्तीसगढ के आदिवासियों को सिर्फ शोषण और काम के लिए रखा जाता है।
संध्या बताती है कि दल में रहने वाली महिलाओं की स्थिति तो और भी खराब है। महिलाओं का शारीरिक शोषण किया जाता है और उनके साथ अमानवीय बर्ताव किया जाता है। बीमार होने पर ईलाज नहीं कराया जाता। वो बताती है कि परिवार वालों से मिलने नहीं दिया जाता।
छत्तीसगढ में सरकार ने नक्सलियों के पुनर्वास के लिए पुनर्वास नीति बनाई है जिसके तहत नक्सलियों का साथ छोडकर मुख्य धारा में आने वाले नक्सलियों को रोजगार और समाज की मुख्य धारा में जुडने के लिए आवश्यक संसाधन दिए जाते हैं। कहीं से यह पता चलने पर उर्मिला ने नक्सलियों का साथ छोडने का मन बनाया और आज ही वह उनके चंगुल से छूटकर आत्मसमर्पण किया।
छत्तीसगढ में सरकार ने नक्सलियों के पुनर्वास के लिए पुनर्वास नीति बनाई है जिसके तहत नक्सलियों का साथ छोडकर मुख्य धारा में आने वाले नक्सलियों को रोजगार और समाज की मुख्य धारा में जुडने के लिए आवश्यक संसाधन दिए जाते हैं। कहीं से यह पता चलने पर उर्मिला ने नक्सलियों का साथ छोडने का मन बनाया और आज ही वह उनके चंगुल से छूटकर आत्मसमर्पण किया।
नक्सली दुर्दांत होते हैं... उनका कोई इमान नहीं होता..... वो वहशी होते हैं..... उनकी हरकतों से ऐसा ही लगता है लेकिन आज उर्मिला जब संध्या के रूप में रूबरू हुई तब समझ आया कि वहां भी शोषण और अत्याचार की कहानी है।
पश्चिम बंगाल के नक्सल बाड़ी से शुरु हुये इस आन्दोलन का आज चेहरा यक़ीनन बदल चुका है...संध्या तो खुशनसीब है जो समय रहते ही लाल चुंगल से बच कर निकल आयी...पर ना जाने कितनी अनगिनत संध्या होंगी जो विकृत हो चुके इस आन्दोलन के दावानल में रोज़ झुलस रही होंगी...विडंबना है कि कभी शोषण के विरुध्द प्रारंभ हुए इस जन आन्दोलन के आज के अनुयायी...महा शोषण के सूत्रधार बने हुये हैं...सार्थक प्रस्तुति अतुल जी...साधुवाद....
जवाब देंहटाएंअतुल भाई, मनुष्य बडी कुत्ती चीज हैं, जहां भी जाता है, स्वार्थ पहले जोड लेता है।
जवाब देंहटाएं---------
मौलवी और पंडित घुमाते रहे...
बदल दीजिए प्रेम की परिभाषा।
मनुष्य में उसकी मूल प्रवृत्तियां तो होंगी ही.
जवाब देंहटाएंनक्सलियों की सच्चाई सामने लाने के लिए आपका आभार
जवाब देंहटाएंसच से रूबरू कराता आलेख......
जवाब देंहटाएंकडुआ सच यही है और जो इसे जान जाता है वो इससे नफ़रत भी करता है लेकिन ये भी सच है कि हज़ारो करोड सलाना उगाही का ये धन्दा बहुतों के लिये रोज़ीरोटी का साधन है तो कुछ लोगों के लिये अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार और विदेशियों के तलुये चाटने का भी।बहुत अच्छा किया कि नक्सलियों क घिनौना सच सामने रखा,हो सकता है अब वे लोग भी सोचने पर मज़बूर हों जो आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर अन्याय और शोषण की बात करते हैं,बधाई आपको।,आभार आपका।
जवाब देंहटाएंनक्सल सेना मे भर्ती कराने का काम नक्सली नही वरन हमारे अपने ही अधिकारीगण करते हैं इनके प्रकोप से तंग आकर ही लोग देश के दुश्मनो से जुड़ जाते है और आम तौर पर वापस लौटने का मार्ग बंद ही होता है
जवाब देंहटाएंप्रिय अतुल जी ,
जवाब देंहटाएंकई मुद्दे ऐसे होते हैं जिन पर चाह कर भी टिप्पणी नहीं की जा सकती , ख्याल ये कि कारिंदों की जिंदगी में बंदिशों का अपना महत्व होता है अगर सुर सही ना लगा सकें तो बेहतर है कि ज़ुबान पर काबू रखें !
अभी तो सिर्फ इतना कि घटना की शुरूआत के वक़्त कथा की नायिका की उम्र १५ साल के आस पास ही रही होगी ?
हमारी नामर्द व्यवस्था और सरकार ही मौका देती है नक्सली बनने और बनाने का..
जवाब देंहटाएंअपना ही सिक्का खोटा है...विषयांतर हो रहा है मगर देखिये साध्वी को कुत्ते की मौत और अफजल को कबाब, दे रही है नामर्द सरकार...
आक्रोश जन्म ले रहा है जो किसी भी प्रकार के विरोध का प्रथम बिज है...
नक्सल वाद का क्या मतलब होता है ????
जवाब देंहटाएंइन का कार्य क्या होता है ????
ये चाहते क्या है ??????????
atul ji..bahut accha prayaash ahi..naksalio ki sacchai samne laane ka...seedhe saade log shoshan ka shikaar hote hai...aapko sadhuwaad ..apki is kosish se..kai ladkiya aur aldke barbaad hone se bach jayenge..
जवाब देंहटाएं"Ready" is ready on June 03, 2011 & Watch official trailer
जवाब देंहटाएंनक्सल सेना मे भर्ती कराने का काम नक्सली नही वरन हमारे अपने ही अधिकारीगण करते हैं इनके प्रकोप से तंग आकर ही लोग देश के दुश्मनो से जुड़ जाते है और आम तौर पर वापस लौटने का मार्ग बंद ही होता है
जवाब देंहटाएंख़ुशी के अहसास के लिए आपको जानना होगा कि ‘ख़ुशी का डिज़ायन और आनंद का मॉडल‘ क्या है ? - Dr. Anwer Jamal
nice information
जवाब देंहटाएंआंखें खोलने वाली कहानी है। इसे मानवाधिकार आयोग वालों को पढ़ाया जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा,
जवाब देंहटाएं- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
नक्सलवाद का आन्दोलन आज अपने मूल उदद्यदेश्य से भटक चुका हे। वर्तमान में नक्सलवाद दरअसल एक संगठित अराजकता और डकैती का रूप ले चुका है। कुछ राजनीतिक दल अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए भी नक्सलवाद की आग को हवा देते रहते हैं। गरीब जनता दोनों ओर से पिसती है, चाहे प्रशासन हो या नक्सली।
जवाब देंहटाएंविचारणीय पोस्ट, आँखें खोलने में सक्षम , आभार
जवाब देंहटाएंजागरूक करता आलेख। हम लोग अपने ही देश की बहुत सी सच्चाइयों से अवगत नहीं हैं। ऐसे ही आलेख पढ़कर बहुत कुछ मालूम चल पाता है।
जवाब देंहटाएंAankhe kholne waali kahaani hai Sandhya ki ...
जवाब देंहटाएंभाईसाहब यह सब उस गौतम नौलख्खा को पढवाओ जो नक्सलियों के मानव अधिकारों की बात करता है लेकिन संध्याओं का शोषण उसे नजर नहीं आता .
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! शानदार और विचारणीय आलेख!
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!