पूरे एक साल हो गए बाघिन की मौत को। राजनांदगांव जिले के छुरिया अंचल के बखरूटोला गांव में हजारों की भीड़ ने 24 सितम्बर 2011 को एक घायल बाघिन को लाठी-डंडों से पीट-पीट कर मार डाला था और इसके बाद एक बड़ा नाटक हुआ था सरकारी अमले का। बाघ संरक्षण की दिशा में काम करने वाली सरकारी संस्था का लेकिन अब साल भर बीत गया है और इस पर कुछ सामने नहीं आया है। न ही इस घटना में किसी को दोषी ठहराया गया है और न ही बाघिन की मौत के लिए जिम्मेदार किसी शख्स को सजा मिली है। ऐसे हालात तब हैं जब बाघिन की मौत के गवाह उसकी सुरक्षा का दायित्व निभाने वाला वन विभाग था। वन विभाग के अमले के सामने बाघिन को घेरकर मार डाला गया और इसके बाद सिर्फ कागजी खानापूर्ति ही की गई। न किसी को सजा दी गई और न ही किसी को जिम्मेदार बताया गया।
यह बात उतनी सामान्य नहीं थी। यह सिर्फ एक वन्य पशु को मार डालने का मामला नहीं था। यूं तो समय समय पर वन्य पशुओं के शिकार के मामले सामने आते रहे हैं और उन मामलों में वन विभाग का अमला अपने स्तर पर और पुलिस अपने स्तर पर कार्रवाई भी करती है लेकिन यह मामला देश के राष्ट्रीय पशु की हत्या का था। यह सिर्फ शिकार का मामला नहीं था। दरअसल, राजनांदगांव जिले के छुरिया अंचल में करीब डेढ़ दो महीने से दहशत का माहौल कायम कर देनी वाली बाघिन को लेकर वन विभाग का अमला शुरू से बेपरवाह रहा और आखिरकार ऐसी घटना हो गई जिसका अंदेशा पहले से था। पर यह उम्मीद नहीं थी कि बाघिन को वन विभाग के अमले के अमले के सामने ही मार डाला जाएगा और वह हाथ पर हाथ धरा बैठा रह जाएगा।
24 सितम्बर को बाघिन की हत्या हुई और इसके बाद इसकी गूंज दिल्ली तक पहुंची। तीन अक्टूबर को ही उस संस्था के प्रतिनिधि यहां पहुंच गए जिसके प्रमुख खुद प्रधानमंत्री होते हैं। यानि नेशनल टाईगर कंजरवेशन अथारिटी की चार सदस्यीय टीम यहां पहुंची और उसने घटनास्थल का दौरा किया। बाद में यहां उसने मीडिया को आश्वस्त किया कि पूरे मामले की रिपोर्ट अथारिटी को सौंप दी जाएगी और इसके बाद दोषियों पर कार्रवाई सुनिश्चित की जाएगी। इस मामले में वन विभाग का अमला खुद कटघरे में था। उम्मीद की जा रही थी कि अथारिटी के लोग दिल्ली जाते ही एक बड़ी कार्रवाई कर सकते हैं और इसकी जद में वन विभाग के अफसर भी आ सकते हैं लेकिन हुआ कुछ नहीं और अब साल भर बीत गए हैं। यहां से जाने के बाद अथारिटी के लोगों ने यहां झांका तक नहीं और न ही किसी प्रकार की कार्रवाई अब तक हो पाई है।
तब भी यह बात कही जा रही थी और हम अब भी कह रहे हैं कि बाघिन की मौत भले ही उत्तेजित ग्रामीणों की लाठियों से हुई है लेकिन इन लाठियों को उठने के लिए वन विभाग ने मजबूर किया था। न सिर्फ राजनांदगांव बल्कि पहले से घायल और शिकार करने में अक्षम इस बाघिन को सुरक्षित रखने के बजाय जंगल में खुले छोड़ देने वाले महाराष्ट्र के वन अमले को भी इस मामले में सजा मिलनी चाहिए थी लेकिन एक राष्ट्रीय पशु की असमय और बर्बतापूर्वक हत्या हो जाती है और सब कुछ शांत हो जाता है। बाघ संरक्षण की दिशा में काम करने वाले लोगों और जंगल विभाग की नजर में भले ही यह मामला संख्या में एक बाघ के कम हो जाने जैसी घटना हो लेकिन हमारा मानना है कि यह घटना इंसानियत पर सवालिया निशान है।
बेहद शर्मनाक... न जाने कहाँ जा रहे हैं हम एक घायल और बेबस जानवर को मारकर खुद को बहादुर साबित करके क्या मिला उन ग्रामीणो को या फिर उन वन विभाग के लोगों को जिनके कहने पर उस ग्रामीणो ने यह सब किया। महज़ थोड़े से लालच के कारण किसी मासूम और बेगुनाह जानवर की जान लेलेना कहाँ की शान है।
जवाब देंहटाएंसोचने को बाध्य करता आलेख!
जवाब देंहटाएंयह घटना इंसानियत पर सवालिया निशान है।
जवाब देंहटाएंRECENT POST समय ठहर उस क्षण,है जाता,