राजनांदगांव के जिला अस्पताल को मेडिकल कॉलेज का दर्जा मिल गया है। पिछले साल बड़ी तेजी से काम कर ऐसा किया गया। मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने इसके लिए तब के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल और स्वास्थ्य विभाग के राजधानी में बैठे अफसरों की खूब पीठ थपथपाई थी। काम भी अच्छा था। पर मुख्यमंत्री के माननीय मंत्री और उनके अफसरों की कार्यक्षमता पर उस समय सवाल खड़े हो जाता है, जब यह खबर सामने आती है कि मुख्यमंत्री के विधानसभा क्षेत्र में ही एक डॉक्टर का प्रकरण छह साल से बिना जांच के पड़ा हुआ है। वह डाक्टर निलंबित हो जाता है। सरकार से 75 प्रतिशत गुजारा भत्ता लेना शुरू कर देता है और फिर जिला अस्पताल के सामने ही नर्सिंग होम खोलकर सरकारी अस्पताल की खामियों का फायदा उठाते हुए वहां के मरीजों को अपने यहां खींचना शुरू कर देता है।
राजनांदगांव के जिला अस्पताल में भेषज्ञ विशेषज्ञ डॉ. दिवाकर रंगारी को सितम्बर 2009 में मेडिकल सर्टिफिकेट बनाने के बदले रिश्वत लेने के आरोप में अक्टूबर 2009 में निलंबित किया गया था। इसके बाद राज्य सरकार ने जांच बिठा दी। जांच न जाने किस मुहुर्त में बिठाई गई, वह अब तक शुरू ही नहीं हो पाई है। व्यवस्था की खामी ऐसी है कि अब डॉ. रंगारी का 'अपराध' सामान्य लगने लगा है। छह सालों में जांच क्यों शुरू नहीं हो पाई, इस पर यदि जांच हो जाए तो संभवत: राजनांदगांव से लेकर राजधानी तक के स्वास्थ्य अमले के कई अफसरों पर गाज गिर सकती है। सबने इस प्रकरण को लटकाकर सरकारी धन की बर्बादी में अपना अपना पर्याप्त योगदान दिया है।
डॉ. दिवाकर रंगारी का प्रकरण अपने आप में अजूबे की तरह है। पूरा शहर चर्चा करता है कि डॉ. रंगारी अपने निलंबन को बनाए रखने हर जतन करते हैं। कलक्टर शासन को पत्र लिखकर कहते हैं कि प्रकरण में कोई जांच करना नहीं चाहता। वो यह भी कहते हैं कि डॉ. रंगारी खुद सबसे फायदे की स्थिति में हैं। तीन साल पहले जीवनदीप समिति की बैठक में स्वास्थ्य मंत्री के सामने मामला लाया जाता है। मंत्री जल्द से जल्द निपटारे का निर्देश देते हैं, पर होता कुछ नहीं। डॉ. रंगारी कहते हैं कि वो खुद याचक की भूमिका में हैं। वो तर्क देते हैं कि यदि जांच को वो रोक सकते हैं तो समझ लीजिए कि सरकार में डॉ. रंगारी की कितनी चलती है।
सवाल सिर्फ यह नहीं है कि एक डॉक्टर मेडिकल सर्टिफिकेट लेने के आरोप में निलंबित होता है और उसके प्रकरण में छह साल तक जांच ही शुरू नहीं हो पाती। सवाल यह भी नहीं है कि वह डॉक्टर बिना काम किए आधे से ज्यादा पगार पा रहा है। सवाल यह भी नहीं है कि वह सरकारी अस्पताल के सामने ही निजी नर्सिंग होम खोलकर सरकारी अस्पताल के मरीजों को अपने यहां खींचने का काम कर रहा है। सवाल यह है कि जब मुख्यमंत्री के क्षेत्र में स्वास्थ्य जैसे मसले पर अफसर इस तरह से लापरवाही से काम करते हैं, तो प्रदेश के दूसरे इलाकों में क्या होता होगा? विभागों में क्या होगा? लगता है, अफसरों पर सीएम का डर खत्म हो गया है। यह हाल तब है, जब सीएम के पुत्र अभिषेक सिंह स्वयं राजनांदगांव के सांसद हैं।
अतुल भइया के लिए चंद लाइनें । जरूर पढ़ें
जवाब देंहटाएंमेरी कलम से । अतुल का नहीं , ये है देश का सम्मान http://ajaysoni1984.blogspot.com/2015/09/blog-post.html
बढिया लेख है ।Seetamni. blogspot. in
जवाब देंहटाएंबढिया लेख है
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