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01 मई 2020

मजदूर... मजबूर

मजबूर... एक मई मजदूर दिवस है। इस दिवस से करीब महीने भर पहले से मजदूर मजबूर हो गए हैं और अब भी मजबूर हैं। कोरोना वायरस के कहर ने उनसे उनका काम छीन लिया है और वो चिलचिलाती धूप में कभी पैदल तो कभी ट्रकों के उपर सवार होकर अपने घर जाने की कोशिश कर रहे हैं। इस मजदूर दिवस पर कोई समारोह नहीं होगा। यदि होता तो भी मजदूरों की हालत शायद ही बदलती। अपने कार्यक्षेत्र में पसीना बहाना ही इनकी नियति रही है लेकिन इस बार पसीना बिना काम के बह रहा है और मजदूरों का सफर जारी है। मजदूरों का यह सफर अंग्रेजी के "सफर" की तरह है...

महीनेभर से ज्यादा समय से चल रहे लॉकडाउन के बीच एक तस्वीर तकरीबन लगातार नजर आ रही है और वह तस्वीर है सिर में सामान ढोए और गोद में बच्चा लिए मजदूरों के पैदल चलने की। लॉकडाउन ने काम धंधा छीन लिया और ऐसी स्थिति में घर पहुंचने की ललक में मजदूर सैकड़ों किलोमीटर के सफर पर पैदल ही निकल पड़े हैं। 

छत्तीसगढ़ के प्रवेश द्वार पर बसे राजनांदगांव में यह तस्वीर हर दिन नजर आ रही है। हाईवे पर पहरा है, ऐसी स्थिति में मजदूर गांवों की कच्ची सड़कों का उपयोग कर जिला मुख्यालय तक पहुंच रहे हैं और फिर यहां से छत्तीसगढ़ के अलग-अलग शहरों की ओर बढ़ रहे हैं।
मजदूरों का मजबूर होकर सैकड़ों किलोमीटर का सफर पैदल ही तय कर अपने घर लौटने का सिलसिला थम नहीं रहा है। हर दिन मुंबई, पुणे, हैदराबाद और नागपुर जैसे बड़े शहरों से लोग यहां पहुंच रहे हैं।

हर साल बड़ी संख्या में छत्तीसगढ़ से मजदूर दूसरे राज्य पलायन कर जाते हैं। प्रशासन के पास मौजूद आंकड़ों के अनुसार अकेले राजनांदगांव जिले से करीब 9 हजार मजदूर हैदराबाद, मुंबई, पुणे, तेलंगाना और नागपुर में फंसे हुए हैं। इनमें सबसे ज्यादा बुरी स्थिति अकुशल मजदूरों की है। विभिन्न जगहों पर फैक्ट्रियों या निर्माणाधीन भवनों में काम करने वाले अकुशल मजदूरों के पास उनका बैंक खाता स्थानीय है और उनके पास एटीएम भी नहीं है। उनका राशनकार्ड उनके गांव में है। ऐसे लोगों तक चाह कर भी आर्थिक मदद नहीं पहुंचाई जा सक रही है।

01 जुलाई 2017

आस्था का भी कोई वजन होता है क्या?

"बड़े दिनों, दिन क्या कई महीनों करीब 17-18 महीनों (साल लिखना ज्यादा बड़ा लगता ☺) से ब्लाग लेखन से दूर था। ऐसा नहीं कि लिखना बंद हो गया था लेकिन हर दिन हत्या हो रही थी ब्लाग पोस्ट्स की! और यह हत्या और कोई नहीं कर रहा था, फेसबुक कर रहा था!! याद नहीं आ रहा लेकिन फेसबुक में ही किसी मित्र ने एक बार लिखा भी था कि फेसबुक के छोटे-छोटे पोस्ट ब्लॉग के विषयों की हत्या कर देते हैं!!! ऐसा मेरे साथ भी हो रहा था। डेस्कटॉप में महीनों बैठना नहीं हो पाता, मुद्दे आते हैं तो मोबाइल के जरिए फेसबुक में स्टेट्स अपडेट कर दिया, बस... आलस की एक वजह यह भी कि अब ब्लॉग में पढऩे वाले ज्यादा नहीं, फेसबुक में लिखा तो सूची में शामिल मित्र तो पढ़ ही लेंगे, ये अलग बात है कि टिप्पणियां या प्रतिक्रिया कुछ ही आए। कई बार सोचा कि अब ब्लॉग की ओर लौटना है, पर सोच कहां हर बार पूरी हो पाती है! इसी बीच इसी फेसबुक (जिस पर हत्या का आरोप है) में ब्लॉगों में रात 12 बजे घंटा बजाकर लौटने का स्टेट्स पढ़ा। लगा, यह अच्छा मौका है। अब लौटा जाए और कोशिश किया जाए कि नियमित रहूँ।  वैसे भी ब्‍लाग लेखन ने उम्‍मीद से ज्‍यादा दिया है मुझे। दो दशक से ज्‍यादा की पत्रकारिता में जो हासिल किया, उससे ज्‍यादा ब्‍लागरी से मिला। देशभर में मित्र। अनेकों शुभचिंतक। कई मार्गदर्शक। अंतरराष्‍ब्‍ृीय स्तर पर सम्‍मान।  तो बस आ रहा हूं। अब लंबी छुट्टी हो गई है तो भगवान का नाम लेकर ही लौटा जाए और भगवान की ही पोस्ट के साथ तो हाल ही में बस्तर भ्रमण के दौरान मिले एक अनुभव के साथ हाजिर हूँ।"


छत्तीसगढ़ में नक्सल हिंसा के नाम से देशभर में बदनाम लेकिन अपनी प्राकृतिक और सांस्कृतिक खूबियों से सराबोर बस्तर में कई ऐसी चीजें हैं, जो न सिर्फ खुद को दूसरों से अलग करती है बल्कि अचंभित भी करती है। इसी बस्तर के दंतेवाडा़ में माँ दंतेश्वरी का मंदिर पूरे छत्तीसगढ़ और पडो़स में लगे आंध्रप्रदेश के लोगों की आस्था का केन्द्र है। माँ दंतेश्वरी मंदिर के पीछे माता की बगिया में काल भैरव का मंदिर है। इसी परिसर में टाट की छत के नीचे शिवजी विराजमान हैं। मान्यता है कि शिवलिंग को तीन उंगलियों में उठाकर रख और इस समय तक अपनी मनोकामना भगवान तक पहुँचाया जाता है। ऐसा तीन बार किया जाता है (वैसे तीन उंगलियों में उठाना आसान भी नहीं है)

तो हमने भी कोशिश की और शिवजी की कृपा से सफल भी हो गए। तीन बार ऐसा किया। फिर इच्छा हुई तो फिर से ऐसा किया। वहीं बैठे पुजारीजी मुस्कुराते हुए पूछा, कितना वजन था तो उल्टे उनसे ही सवाल पूछ लिया कि आस्था का भी कोई वजन होता है क्या?

फिर तो बहुतों ने कोशिश की। कुछ सफल हुए। कुछ नहीं कर पाए। बच्चे जब ऐसा नहीं कर पाए तो दोनों हाथों से शिवलिंग उठा भगवान से बातें कर ली।

आप कभी बस्तर जाएं तो दंतेवाड़ा जरूर जाएँ, मां दंतेश्वरी का दर्शन करने के बाद शिवजी का आशीर्वाद भी लें।

#हिन्दी_ब्लॉगिंग

01 दिसंबर 2015

ऑपरेशन कीजिए डॉक्टर साहब!

साभार के साथ पत्रिका अखबार में इस आशय की छपी खबर
कुछ समय पहले मैंने लिखा था कि प्रदेश का शिक्षा मंत्री प्रदेश भर में शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों के लिए रोल मॉडल होता है... पर माफ करें, ये तो कतई रोल मॉडल नहीं हो सकते, यह उस समय भी तय था और इन महाशय ने अपनी हरकतों से इस बात पर फिर से मुहर लगाने का काम कर दिया है। शिक्षा हर किसी का अधिकार होता है और बेहतर शिक्षा के लिए किसी मेधावी बच्चे को यदि उसके मजहब के आधार पर आंका जाए तो माफ करें, इनकी बुद्धि पर तरस आता है।
छत्तीसगढिय़ा सबले बढिय़ा का नारा बुलंद किया जाता है यहां, पर माफ करें प्रदेश के शिक्षा मंत्री महोदय आपकी हरकतें आपको बढिय़ा नहीं, घटिया साबित कर रही हैं। प्रदेश के शिक्षा मंत्री केदार कश्यप को लेकर एक खबर आई है कि उन्होंने एक मेधावी बच्ची की शिक्षा के लिए मदद मांगे जाने पर उस बच्ची और मदद मांगने गईं उसकी शिक्षिका दोनों को उठाकर बाहर फेंक देने का आदेश दे दिया!
खबर का सार यह है कि एक सामाजिक कार्यकर्ता जो कोचिंग सेंटर चलाती हैं, के यहां एक मुस्लिम बच्ची (बच्ची का नाम कुछ भी हो सकता है) पढ़ती है। यह बच्ची होनहार है। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं, पर आगे पढऩे की ललक है। यह सामाजिक कार्यकर्ता उस बच्ची को लेकर शिक्षा मंत्री के पास जाती हैं। उनसे बच्ची की शिक्षा के लिए मदद की गुहार लगाती हैं लेकिन जैसे ही मंत्री महोदय बच्ची के आवेदन में उसका समुदाय देखते हैं, उनके मुंह से निकलता है, अच्छा ये मुस्लिम है। वे अपने सुरक्षा कर्मियों को बुलाते हैं और दोनों को उठाकर बाहर फेंक देने का आदेश दे देते हैं।
ये वही शिक्षा मंत्री हैं, जिनकी पत्नी ने कुछ समय पहले 'मुन्नीबाई' का दर्जा हासिल किया था। जी हां! इनकी पत्नी को कॉलेज पास करने का कीड़ा काटा था, पर उनमें योग्यता नहीं थी तो उन्होंने सिर्फ परीक्षा के लिए फार्म भरा था और परीक्षा किसी और ने दी थी। मामला पकड़ में आ गया और पूरे प्रदेश में बवाल मच गया था। अब ऐसे शिक्षा मंत्री से और बेहतर की क्या उम्मीद की जा सकती है।
पर प्रदेश के मुखिया। पेशे से चिकित्सक रहे प्रदेश के मुखिया को अपनी टीम के ऐसे साथियों की गंभीर बीमारी पर कोई ठोस इलाज करना चाहिए। न जाने क्या मजबूरी है, वो ऐसा नहीं कर रहे हैं। पहले मामले में मुखिया ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया था कि परीक्षा मंत्री ने थोड़े ही दिया है। इस बार हालांकि उन्होंने अपने मंत्रियों को संयम बरतने की सलाह दी है। डाक्टर साहब, अब ऐनासीन, क्रोसीन से काम नहीं चलने वाला... आपके मंत्रियों की बीमारी गंभीर हो गई है, ऑपरेशन कीजिए, तभी सुधार होगा।

06 अगस्त 2015

एमपी नहीं, सीजी गजब है...!

इस महिला ने दी मंत्री की पत्नी की जगह परीक्षा
पड़ौसी राज्य मध्यप्रदेश का एक विज्ञापन टीवी पर अक्सर देखने मिलता है, 'एमपी गजब है'... एमपी यानि मध्यप्रदेश के छोटे भाई सीजी यानि छत्तीसगढ़ ने खुद को 'गजब' साबित कर दिया है! हम आभारी हैं, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का, जिनके  'अथक प्रयास' से ऐसा हो पाया है!!! किसी समय देश की एक राष्ट्रीय मेग्जिन ने डॉ. रमन सिंह को नंबर वन सीएम का दर्जा दिया था। बाद में छत्तीसगढ़ की जनता ने उनको एक दर्जा दिया, देश में सबसे ज्यादा श्रद्धांजलि देने वालों में सबसे अव्वल सीएम होने का। अब मुख्यमंत्री एक नए 'अवतार' में सामने आए हैं। अपने मंत्रियों के लिए 'तारणहार' के अवतार में सामने आए हैं! हाल की दो घटनाओं के बाद  मुख्यमंत्री ने अपने मंत्रियों के बचाव में जिस तरह की बयानबाजी की है, उसने यही कहने मजबूर कर दिया है, गजब है...!!!!!
प्रदेश का शिक्षामंत्री प्रदेश भर में शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों के लिए रोल मॉडल की तरह होता है। गजब है... यह रोल मॉडल, जिनकी पत्नी की जगह कोई दूसरा परीक्षा देने बैठ जाता है। शिक्षामंत्री का बयान आता है, उनकी जानकारी में नहीं था यह! गजब है...! कौन पति होगा, जिसे पता नहीं होगा कि उसकी पत्नी परीक्षा दे रही है और परीक्षा के लिए उसने क्या तैयारी की होगी! गजब है...! साली को आधी घरवाली कहा जाता है! केदार बाबू, ये सिर्फ कहा जाता है, सिर्फ कहा जाता है, आपने तो...!!! गजब है...!
एक फिल्म आई थी, मुन्नाभाई एमबीबीएस। इस फिल्म में नायक नकल कर एमबीबीएस की परीक्षा देता है। राजकुमार हिरानी ने ऐसे कृत्यों को करने वालों के लिए जाने अनजाने एक शब्द दे दिया, मुन्ना भाई! लो हमने हिरानी को एक नया टाईटल दे दिया फिल्म बनाने के लिए, मुन्नीबाई, ...गजब है...! याद करें, एक और फिल्म आई थी, इंकलाब। इस फिल्म के नायक को तंत्र के चक्रव्यूह में पड़कर अपनी सरकार में ऐसे लोगों को मंत्री बनाना पड़ता है, जो उस अनूठे थे। मसलन, गृहमंत्री वो बना, जिसका अपना परिवार नहीं टिक पाया। शिक्षामंत्री वो बना, जो अंगूठा छाप था। आदि आदि। गजब है...!!! आपके पास तो ऐसी कोई मजबूरी नहीं, फिर ऐसा क्यों सीएम साहब! गजब है...!
छत्तीसगढ़ में नसबंदी कांड हुआ था। नसबंदी के दौरान कई महिलाओं की जान चल गई थी। स्वास्थ्य मंत्री के इस्तीफे की बात हुई तो मुख्यमंत्री महोदय का बयान आया कि मंत्री ने थोड़े ऑपरेशन किया था। गजब है...! अब जब शिक्षामंत्री की पत्नी के स्थान पर कोई दूसरी परीक्षा देते हुए पकड़ी गई। एक बार फिर इस्तीफे की मांग हुई। मुख्यमंत्री को अपना पुराना बयान रटा-रटाया था। रिपीट कर दिया। मंत्री ने परीक्षा थोड़े दी है! गजब है...!

15 अप्रैल 2015

सिसकियाँ

मैं कैसे रचूं कोई प्रेमगीत
कैसे लिखूं नगमें
कैसे मेरे कलम से निकले
अफसाने
जब हर दिन आंखों के सामने
खूनी मंजर
बेटे की लाश पर
आंसू बहाती माँ
पति को निर्जीव देख
सुध-बुध खोई पत्नी
पिता को तिरंगे में लिपटा देखकर
कुछ न समझने वाला मासूम
आंखों से ओझल नहीं होते
ये छत्तीसगढ़ है
यहाँ
नक्सलवाद का खूनी खेल चलता है
और
चलती है
सरकार और विपक्ष की
राजनीति
यहाँ
प्रेम-गीत नहीं
यहाँ
कलम से निकल सकती है
तो
सिर्फ और सिर्फ
सिसकियाँ
- अतुल श्रीवास्तव

(माफ कीजिएगा, कविताएं करना बरसों पहले बंद कर दिया था, आज न जाने कैसे उंगलियां चलने लगीं और यह लिख डाला)

28 जुलाई 2014

नहीं रहा चरणदास चोर....


छत्तीसगढ़ के महान कलाकार गोविंदराम निर्मलकर नहीं रहे. रविवार को रायपुर के ज़िला अस्पताल में पद्मश्री गोविंदराम निर्मलकर ने अंतिम सांस ली.
जिन्होंने हबीब तनवीर का ‘चरणदास चोर’ देखा हो या ‘आगरा बाज़ार’, उन्हें गोविंद राम निर्मलकर ज़रुर याद होंगे. ‘चरणदास चोर’ का चोर हो या ‘आगरा बाज़ार’ का ककड़ी बेचने वाला हो, ‘लाला शोहरत बेग’ का शोहरत बेग हो या ‘देख रहे हैं नैन’ का दीवान, गोविंद राम निर्मलकर से आप बात करें तो लगता है, जैसे कल की ही बात हो. लेकिन गरीबी और लकवा की मार झेलते हुए गोविंदराम निर्मलकर इस दुनिया को अलविदा कह गये.
गरीबी और बीमारी ने उन्हें तोड़ दिया था. पद्मश्री समेत सारे सम्मान बेमानी साबित हुये और हालत ये हुई थी कि अपनी दवाइयां खरीदने और गृहस्थी की गाड़ी चलाने के चक्कर में वे लाख रुपये के कर्जे में डूब गये थे.
वह 1950 का जमाना था, जब 1935 में जन्मे 15 साल के गोविंदराम निर्मलकर हबीब तनवीर के साथ पहली बार नाटक की दुनिया में उतरे. छत्तीसगढ़ के लोकनाट्य नाचा के कलाकार गोविंदराम ने 1954 में पहली बार दिल्ली थियेटर के लिये आगरा बाज़ार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उसके बाद तो आने वाले 50 साल जैसे गोविंदराम और हबीब तनवीर का नया थियेटर एक दूसरे की पहचान बन गये.
मिर्जा शोहरत बेग, बहादुर कलारिन, मिट्टी की गाड़ी, पोंगा पंडित, शाजापुर की शांतिबाई, गांव के नाम ससुरार मोर नाव दमाद, सोन सरार, जिन लाहौर नई वेख्‍या वो जन्‍म्या ई नई, कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना, वेणीसंघारम….और जाने कितने नाटक. एडिनबरा में चरणदास चोर के मंचन को याद करते हुए गोविंदराम निर्मलकर की आंखें चमकने लग जाती थीं- “52 देशों के नाट्य दल थे वहां और चरणदास चोर को श्रेष्ठ नाटक का सम्मान मिला. उसके बाद तो हमने दुनिया भर में उसका मंचन किया.”
छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गांव मोहरा से दुनिया के रंगमंच पर अपने अभिनय की छटा बिखेरने वाले गोविंदराम निर्मलकर जब अपने उम्र के आखरी पड़ाव में पहुंचे तो लगा कि अब अपनी जड़ों में ही रहकर कुछ किया जाये. लेकिन बीमारी ने इससे पहले उन्हें घेर लिया.
हबीब तनवीर और उनकी मंडली को करीब से जानने वालों को पता है कि हबीब तनवीर की टीम के आधार स्तंभ माने जाने वाले मदन निषाद से लेकर भुलवाराम यादव और फिदाबाई मरकाम तक के आखरी दिन कैसे गुजरे हैं. ऐसे में गोविंदराम निर्मलकर के साथ कुछ अलग होने की उम्मीद कम ही थी. लेकिन जब सरकार ने उन्हें पद्मश्री के लिये चुना तो उम्मीद जगी कि देर से ही सही, कम से कम सरकार ने उनकी प्रतिभा को पहचाना तो सही.
गोविंद राम अपनी पत्‍नी के साथ दिल्‍ली गये और पद्मश्री पाया. सम्मान लेकर अपने गृह जिले राजनांदगांव लौटे तो निर्मलकर के मन में कई अरमान थे. श्री निर्मलकर ने तब कह‍ था कि वे लुप्‍त होती नाचा विधा को नई पीढी को सौंपकर वे दुनिया से विदा होना चाहते हैं लेकिन उनकी इस इच्‍छा पूर्ति में आड़े आ गया उनका स्‍वास्‍थ.
लगभग 75 साल के गोविंद राम लकवा से पीड़ित थे और चाहते थे कि सरकार ने जब उन्‍हें यह सम्मान दिया है तो उनकी बीमारी को ठीक करने में मदद भी करे ताकि जिस नाचा कला के लिए उन्‍हें यह सम्मान मिला है, वह समय के साथ खत्‍म न हो. पर ऐसा नहीं हुआ. समय समय पर उनकी पीडा उजागर भी होती रही  उन्हें कहीं से कोई मदद नहीं मिली. न अपने लिये न नाचा के लिये. सरकार की ओर से मिलने वाली 1500 की पेंशन ही उनके इलाज और घर चलाने के लिये आय का एकमात्र स्रोत था. और जरा हिसाब लगायें कि 1500 रुपये में आज के जमाने में क्या-क्या किया जा सकता है !
श्रद्धासुमन.....